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________________ १६२ सूत्रकृतांग सूत्र पुरुष ऐसा होता है कि किसी गृहपति से कम या तुच्छ अनाज पाने से या किसी अन्य मनोरथ के सिद्ध न होने से अथवा अपमान आदि किसी कारण से उक्त गृहपति या उसके पुत्रों पर नाराज एवं विरुद्ध होकर (गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा कुडलं वा मणि वा मोत्तियं वा सयमेव अवहरइ) उक्त गृहपतियों या उनके पुत्रों के कुण्डल, मणि या मोतियों को स्वयं चुराता है, (अन्नण वि अवहरावेइ) दूसरे से भी उनकी चोरी करवा देता है, (अवहरंतं वि अन्नं समणुजाणइ) उनकी चोरी करने वाले को अच्छा समझता है। (इति से महया जाव भवइ) ऐसा महान् पापकर्म करने के कारण वह व्यक्ति महापापी के नाम से प्रसिद्ध हो जाता है। (से एगइओ खलदाणेणं वा सुराथालएण अदुवा केणइ आयाणेणं विरुद्ध समाणे) कोई व्यक्ति श्रमणों या माहनों के किसी भक्त से कम या सड़ा-गला अनाज पाकर अथवा मद्य की हंडिया न मिलने से या किसी अभीष्ट स्वार्थ के सिद्ध न होने से अथवा किसी भी अन्य कारणवश श्रमणों या माहनों पर कुपित या उनके विरुद्ध होकर (समणाणं वा, माहणाणं वा छत्तगं वा, दंडगं वा, भंडगं वा, मत्तगं वा, लठ्ठि वा, भिसिगं वा, चेलगं वा, चिलिमिलिगं वा, चम्मयं वा, छेयणगं वा, चम्मकोसियं वा सयमेव अवहरति) उन श्रमणों या माहनों का छाता, डंडा, उपकरण, पात्र, लाठी, आसन, वस्त्र, पर्दा या मच्छरदानी, चर्म काटने का चाकू या छुरी आदि, या चमड़े की थैली को स्वयं हरण कर लेता है, (जाव समणुजाणइ) तथा दूसरे से इन वस्तुओं को हरण कराता है, या हरण करते हुए व्यक्ति को अच्छा समझता है, (इति से महया जाव उवक्खाइत्ता भवइ) इस प्रकार वह इस महान् पापकर्म के कारण जगत् में महापापी के नाम से बदनाम हो जाता है। (से एगइओ णो वितिगिछइ) कोई व्यक्ति तो कुछ भी विचार नहीं करता (तं जहा—गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा ओसहीओ सयमेव अगणिकाएणं झामेइ) जैसे कि अकारण ही वह गृहपति या उसके पुत्रों के अन्न आदि को स्वयं आग लगाकर भस्म कर देता है, (जाव अन्नपि झामतं समणुजाणइ) अथवा वह उसे दूसरों से जलवाकर भस्म करा देता है या जो जलाकर भस्म कर देता है, उसे अच्छा समझता है । (इति से महया जाव उवक्खाइत्ता भवइ) इस प्रकार महापाप कर्म उपार्जन करने के कारण जगत् में वह महापापी के नाम से पहिचाना जाता है। (से एगइओ णो वितिगिछइ) कोई-कोई व्यक्ति अपने कृत कर्मों के फल का जरा भी विचार नहीं करता (तं जहा-गाहावईण वा गाहावइपुत्ताण वा उट्टाण वा, गोणाण वा, घोडगाण वा, गद्दभाण वा सयमेव घूराओ कप्पेइ) जैसे कि वह किसी भी गृहस्थ या उसके पुत्रों के ऊँट, गाय, घोड़े या गधों के अंगों को स्वयं काटता है, (अन्नेणवि कप्पावेइ, कप्पंतं वि अन्नं समणुजाणइ) दूसरे से उनके अंग कटवाता है तथा जो उनके अंग काटता है, उसकी प्रशंसा एवं अनुमोदन करता है । अपनी इस पाप वृत्ति के कारण वह महापापी के नाम से प्रसिद्ध हो जाता है। (से एगइओ णो वितिगिछइ) कोई आदमी ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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