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________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान १५३ गोवालं परिजविय परिजविय हता जाव उवक्खाइत्ता भवइ) कोई व्यक्ति गोपालन का कार्य अपनाकर उन्हीं गायों के बछड़ों को टोले से बाहर निकालकर मारता है, या उन गाय-बछड़ों को कसाई को बेच देता है, और इस तरह अपनी रोजी कमाता है । अपने इस महापाप के सेवन करने के कारण वह पुरुष जगत् में घोर पापी के नाम से मशहर हो जाता है । (से एगइओ सोवणियभावं पडिसंधाय तमेव सुणगं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव उवक्खाइत्ता भवइ) कोई व्यक्ति कुत्तों को पालने का (चाण्डाल का) धन्धा अपनाकर उसी कुत्ते को या दूसरे किसी त्रस जीव को मारकर अपनी आजीवका चलाता है, अत: वह उक्त महापापकर्म के कारण जगत् में अपने आपको महापापी के नाम से प्रसिद्ध कर लेता है। (से एगइओ सोवणियंतियभावं पडिसंधाय तमेव मणुस्सं वा अण्णयरं वा तसं पाणं हंता जाव आहारं आहारेइ) कोई पुरुष शिकारी कुत्तों के द्वारा जंगली जानवरों को मारने की वृत्ति स्वीकार करके मनुष्य को या अन्य त्रस प्राणी को मारकर या छेदन-भेदन करके अपनी रोजी कमाता है । (इति से महया पाहिं कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ) अतः वह महापापकर्म करने के कारण महापापी के नाम से विख्यात हो जाता है। व्याख्या महापापियों के विभिन्न महापातक कर्म और प्रसिद्धि इस सूत्र में विभिन्न महापाप-व्यवसायियों के महापापकर्म करने के कारणों तथा उनकी विविध वृत्तियों का उल्लेख शास्त्रकार ने किया है । पूर्व सूत्र में यह कहा जा चुका है कि इस जगत् में अनेक प्रकार की रुचि, वृत्ति, आचार-विचार और आजीविका वाले मनुष्य हैं । शास्त्रकार पहले उन लोगों की चर्या और जीविका का निरूपण करते हैं, जो महान् पापकर्म-बन्ध के कारण हैं, और उस-उस महापाप कर्म के करने के कारण जगत् में वे नामी महापापी कहलाने लगते हैं । ऐसे व्यक्तियों को अपनी आत्मा का, अपने हिताहित का, अपने आत्मकल्याण का या अपने वास्तविक आत्मसुख का अथवा इहलोक-परलोक सुधारने का कोई भान नहीं रहता। वे अपने अज्ञान, मोह, स्वार्थ और लोभादि कषायों में अन्धे होकर तथा जगत् के प्राणियों की पुकार को अनसुनी करके विविध पापकर्मों में रात-दिन रचे-पचे रहते हैं । उनके लिए कर्त्तव्य-अकर्तव्य कोई चीज नहीं है । सांसारिक विषय-भोगों का उपार्जन करना ही वे अपना परम कर्तव्य समझते हैं। उसी धुन में वे बड़े से बड़े पाप करने से नहीं हिचकिचाते । वे झूठ बोलकर, चोरी करके, लूट-पाट करके, विश्वासवात करके या मनुष्य, बालक, पशु, स्त्री आदि की हत्या करके किसी का धन छीनने, अपहरण करने या अपने कब्जे में करने में जरा भी नहीं झिझकते। ऐसे महापाप करते समय वे बड़े कठोर एवं नृशंस बन जाते हैं । दया, करुणा, मानवता, सहानुभूति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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