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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
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लौकिक, पापकर्मबन्धक विभिन्न चामत्कारिक विद्याओं का अध्ययन और प्रयोग करते हैं । उनको इन प्रतिकूल विद्याओं के फलस्वरूप आसुरी योनि प्राप्त होती है, तत्पश्चात् 'मूक और अन्धे बनते हैं ।
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इस विश्व में मनुष्यों की बुद्धि अलग-अलग प्रकार की होती है, किसी को कोई वस्तु अच्छी लगती है, किसी को कोई दूसरी । आहार, विहार, शयन, आसन, वस्त्र, आभूषण, यान, वाहन, वाद्य और गायन आदि में सबकी रुचि एक सरीखी नहीं होती । कोई किसी चीज को पसन्द करता है, दूसरा किसी दूसरी चीज को । रोजगार, धन्धे, व्यवसाय आदि में भी सबकी रुचि समान नहीं होती । इसीलिए कोई खेती करता है, कोई व्यापार करता है, कोई कल-कारखाना चलाता है, कोई नौकरी करता है, कोई किसी प्रकार का शिल्प करता है, किसी का अध्यवसाय ( मनोभाव ) शुभ होता है, किसी का अशुभ | इन रुचि - विभिन्नताओं के बावजूद भी जो प्रबल पुण्योदय से उत्तम विवेक सम्पन्न है, उसकी सांसारिक पदार्थों में आसक्ति नहीं होती, इस कारण वह विविध मिथ्याशास्त्रों का अध्ययन नहीं करता; न उनका प्रयोग ही करता है । परन्तु इसके विपरीत जो व्यक्ति काम-भोगों में आसक्त होता है, परलोक की तृष्णा से युक्त है, वह सांसारिक भोग - सामग्री की प्राप्ति के लिए एवं दूसरों का अनिष्ट करने के लिए अनेक प्रकार की पापमयी विद्याओं का अध्ययन और प्रयोग करता है । यद्यपि वे जिन ( अत्र वस्त्रादि ) कामनाओं की पूर्ति के लिए अनेकविध पापमय विद्याओं या शास्त्रों का अध्ययन एवं प्रयोग करते हैं, उनकी वे कामनाएँ कदाचित् आसानी से पूर्ण हो जाती हैं, और वे उन पदार्थों का उपभोग भी कर लेते हैं, तथापि इन विद्याओं का प्रयोग करने में अनेक प्राणियों की आरम्भजनित हिंसा हो जाती है, असत्यादि का व्यवहार भी होता है, इसलिए सावद्य (पाप) कर्मजनित बन्ध के फलस्वरूप उनका परलोक बिगड़ जाता है । इसलिए आर्यजाति में जन्म लेकर भी जो व्यक्ति इन प्रतिकूल विद्याओं का अध्ययन एवं प्रयोग करने में आसक्त है, उसे भाव से अनार्य समझना चाहिए । परलोक की चिन्ता को भूलकर जो केवल इस लोक के भोग-साधनों को उत्पन्न करने वाली कपटप्राय विद्याओं में आसक्त हैं, वे भ्रम में पड़े हैं । ये विद्याएँ परलोक के प्रतिकूल हैं, इसलिए जो इनका अध्ययन एवं प्रयोग इहलौकिक एवं परलौकिक विषयभोगों की प्राप्ति की कामना से प्रेरित होकर करते हैं,
मरकर असुरलोक में किल्विषी देव के रूप में उत्पन्न होते हैं । आयु क्षीण होने पर वे वहाँ से मनुष्य लोक में जन्म लेकर गूंगे और जन्मान्ध होते हैं । अतः विवेकी पुरुष इन पापश्रुतों के चक्कर में नहीं पड़ते ।
शास्त्रकार ने मूलपाठ में उन पापमय विद्याओं की सूची दी है । उनके नाम के अनुसार ही उनका अर्थ स्पष्ट है । अतः यहाँ उनकी व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है ।
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