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________________ १४६ सूत्रकृतांग सूत्र ( ४६ - वेताल) वैताली विद्या, जिसके प्रभाव से अचेतन काष्ठ में भी चेतना आ जाती है, (४७ - अद्धवेताल) अर्द्ध वैताली विद्या - वैताली विद्या की विरोधिनी विद्या, अथवा जिस विद्या के प्रभाव से उठाया हुआ दण्ड गिरा दिया जाता है, ( ४८ - ओसोर्वाण ) अवस्वापिनी विद्या - जिस विद्या के प्रभाव से जागते हुए मनुष्य को सुला दिया जाये, ( ४६ - तालुग्धाणि) ताला खोल देने वाली विद्या, (५० -- सोवागि) चाण्डालों की विद्या, ( ५१ - सोर्वार) शाम्बरी विद्या, ( ५२ -- दामिल) द्राविड़ी (तमिल लोगों की) विद्या, (५३ - कार्लिंग) कालिंगी (कलिंग-उड़ीसा के लोगों की ) विद्या, ( ५४ – गोरि ) गौरी विद्या, ( ५५ - गंधारी ) गान्धारी विद्या, ( ५६ - ओवण) अवपतनी - नीचे गिराने वाली विद्या, (५७ – उप्पर्याण) उत्पतनी ऊपर उठाने वाली विद्या, (५८ -- जंर्भाण) जमुहाई लेने सम्बन्धी विद्या, ( ५६थं भणि) स्तम्भनी - जहाँ का तहाँ थाम देने या रोक देने वाली विद्या, ( ६० - लेसण ) श्लेषणी == चिपका देने वाली विद्या, (६१ – आमयकरण) किसी भी प्राणी को रोगी बना देने वाली विद्या, ( ६२ -- विसल्लकरणि) निःशल्य - नीरोग कर देने वाली विद्या, ( ६३ - पत्रकर्माण ) प्रकामणी - किसी प्राणी को भूत-प्रेत आदि की पीड़ा (बाधा ) उत्पन्न कर देने वाली विद्या, ( ६४ - अंतद्वाणि) अन्तर्धानी - अदृश्य कर देने वाली विद्या, ( ६५ - - आयर्माण ) आयामिनी - छोटी वस्तु को बड़ी बनाकर दिखाने वाली विद्या, ( एवमाइआओ विज्जाओ अन्त्रस्स हेडं पउंजंति, पागस्स हेउं पउंजंति, वत्यस्स हेजं परंजंति, लेणस्स हेउं पउंजंति, सयणस्स हेउं पउंजति) इन और ऐसी ही अन्य विद्याओं का प्रयोग अन्न-पानी के लिए, वस्त्र के लिए, निवास स्थान के लिए, शय्या की प्राप्ति के लिए पाखण्डी लोग करते हैं । ( अन्नेसि वा विरूवरूवाणं कामभोगाणं हेउं पउंजंति) तथा वे नाना प्रकार के विषय-भोगों की प्राप्ति के लिए इन विद्याओं का प्रयोग करते हैं । (तिरिच्छं ते विज्जं सेवेंति) वस्तुतः ये विद्याएँ परलोक के या आत्महित के प्रतिकूल हैं, इन प्रतिकूल विद्याओं का वे अनार्य लोग सेवन करते हैं । (ते अणारिया farasaar कालमासे कालं किच्चा अन्नयराई आसुरियाई किव्विसियाई ठाणाई उववतारो भवंति ) भ्रम में पड़े हुए अनार्य पुरुष इन प्रतिकूल विद्याओं का अध्ययन और प्रयोग करके मृत्यु का अवसर आने पर ( आयु क्षीण होने पर) मरकर किसी असुर सम्बन्धी किल्विषिक स्थानों में उत्पन्न होते हैं । ( ततो वि विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलसूयत्ताए तमअंधयाए पच्चायंति) वहाँ आयु पूर्ण होते ही च्यवन कर ऐसी योनि में जाते हैं, जहाँ वे बकरे की तरह गूँगे, या जन्म से गूँगे और अन्धे होते हैं । व्याख्या प्रतिकूल विद्याओं के प्रयोग से प्रतिकूल गति इस सूत्र में शास्त्रकार ने उन लोगों की मनोवृत्ति का परिचय दिया है, जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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