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सूत्रकृताग सूत्र
लक्षणम्, दण्डलक्षणम्, असिलक्षणम्, मणिलक्षणम्, काकिनीलक्षणम्, सुभगाकरीम्, दुर्भगाकरीम्, गर्भकरीम्, मोहनकरीम्, आथर्वणीम्, पाकशासनीम्, द्रव्यहोमम्, क्षत्रिय विद्यम्, चन्द्रचरितम्, सूर्यचरितम्, शुक्रचरितम्, बृहस्पतिचरितम्, उल्कापातम्, दिग्दाहम्, मृगचक्रम्, वायसपरिमण्डलम्, पांसुवृष्टिम्, केशवृष्टिम्, मांसवृष्टिम्, रुधिरवृष्टिम्, वैतालीम्, अर्द्ध वैतालीम्, उपस्वापिनीम्, तालोद्घाटनीम्, श्वापाकीम्, शाम्बरीम्, द्राविडीम्, कालिंगीम्, गौरीम्, गान्धारीम्, अवपतनीम्, उत्पतनीम्, जृम्भणीम्, स्तम्भनीम्, श्लेषणीम्, आमयकरणीम्, विशल्यकरणीम्, प्रक्रामणीम्, अन्तर्धानीम्, आयमनीम्, एवमादिकाः विद्या: अन्नस्य हेतोः प्रयुञ्जते, पानस्य हेतोः प्रयुञ्जते, वस्त्रस्य हेतोः प्रयुञ्जते, लयनस्य हेतोः प्रयुञ्जते, शयनस्य हेतोः प्रयुञ्जते, अन्येषां वा विरूपरूपाणां कामभोगानां हेतोः प्रयुञ्जते, तिरश्चीनां ते विद्यां सेवन्ति ते अनार्याः विप्रतिपन्नाः कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु आसुरिकेषु किल्विषिकेषु स्थानेषु उपपत्तारो भवन्ति। ततोऽपि विप्रमुक्ता: भूयः एलमूकत्वाय ततोऽन्धत्वाय प्रत्यायान्ति ।। सू० ३० ।।
अन्वयार्थ (अदुत्तरं च णं पुरिसविजयं विभंग आइक्खिस्सामि) इसके पश्चात् जिस विद्या से पुरुषगण विजय प्राप्त करते हैं, अथवा जिसका अन्वेषण करते हैं, उस विद्या को बताऊँगा । (इह खलु णाणापण्णाणं णाणाछंदाणं णाणासीलाणं णाणादिट्ठीणं णाणारूईणं जाणारंभाणं णाणाझवसाणसंजुत्ताणं णाणाविहपावसुयज्झयणं एवं भवइ) इस जगत् में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रज्ञा (ज्ञान) वाले, विभिन्न अभिप्राय वाले, नाना प्रकार के शील (आचार), दृष्टि, रुचि एवं आरम्भ वाले तथा अनेक प्रकार के अध्यवसाय से युक्त मनुष्य होते हैं। वे अपनी-अपनी रुचि के अनुसार विभिन्न प्रकार के पापमय शास्त्रों का अध्ययन करते हैं। (तं जहा) --वे पापमय शास्त्र इस प्रकार हैं--- (१- भोमं) भूकम्प तथा भूमिगत जल तथा खनिज पदार्थों की शिक्षा देने वाला भूमि सम्बन्धी शास्त्र, (२-उप्पायं) किसी न किसी प्रकार के उत्पात (प्राकृतिक प्रकोप या उपद्रव) की सूचना देने एवं फल बताने वाला शास्त्र, (३--सुविणं) स्वप्न के शुभाशुभ फल बताने वाला शास्त्र, (४--अंतलिवखं) आकाश में होने वाले मेघ आदि विषय का ज्ञान कराने वाला शास्त्र, (५---अंग) भ्रकुटि, नेत्र, भुजा आदि अंगों के स्फुरण (फड़कने) का फल बताने वाला शास्त्र, (६----सरं) कौआ, शृगाली आदि स्वरों (शब्दों) के फल बताने वाला स्वर शास्त्र अथवा स्वरोदयशास्त्र, (७-लक्खणं) पुरुषों या स्त्रियों के हाथ आदि अंगों में पड़े हुए यव, मत्स्य, शंख, पद्म तथा श्रीवत्स,
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