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________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान १३७ बनाकर निवास करते हैं । वहाँ वे कन्द, मूल, पत्र, फूल आदि खाकर अपना निर्वाह करते हैं, कोई पेड़ों के मूल में डेरा जमाकर रहते हैं, कोई आश्रम या झोंपड़ी बना कर रहते हैं, कोई ग्राम से अपना निर्वाह करते हुए ग्राम में ही निवास करते हैं या गाँव के आस-पास ही रहते हैं। कई एकान्त में निवास करते हैं या कुछ गुप्त क्रियाएँ करते हैं । ये पाखण्डी यद्यपि त्रसजीवों का घात नहीं करते, तथापि अपने निर्वाह के लिए सचित्त जल, वनस्पति, अग्नि आदि का आरम्भ करके एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा करते ही हैं । तापस आदि प्रायः इसी तरह के होते हैं । ये तापस आदि द्रव्यरूप से अनेक व्रतों का पालन करते हुए भी भावरूप से एक भी व्रत का पालन नहीं करते; क्योंकि भावव्रत का पालन करने के लिए सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन अपेक्षित हैं, जो उनमें नहीं होते । इस कारण वास्तव में वे व्रतहीन हैं । वे पाखण्डी अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए लोगों को बहुत-सी सच्ची-झूठी कपोलकल्पित बातें कहते हैं । वे कहते हैंमैं ब्राह्मण या तापस हूँ, इसलिए डंडे आदि से मारने-पीटने योग्य नहीं हूँ। परन्तु दूसरे जो शूद्र आदि हैं, वे डंडे आदि से मारने-पीटने योग्य हैं । इस बात के समर्थन में इनके द्वारा मान्य शास्त्र का वाक्य प्रस्तुत है “शूद्र व्यापाद्य प्राणायाम जपेत् किञ्चिद् दद्यात् ।” अर्थात्-शूद्र को मार कर प्राणायाम करे, मन्त्रजाप करे और कुछ दान "क्षुद्रसत्त्वानामनस्थिकानां शकटभरमपि व्यापाद्य ब्राह्मणं भोजयेत् ।" बिना हड्डी के क्षुद्र प्राणियों को एक गाड़ी भर मारकर ब्राह्मण को भोजन करा दे । इसलिए वे कहते हैं-हम वर्गों में श्रेष्ठ हैं, वर्गों के गुरु हैं, हम चाहे कितना ही बड़ा अपराध कर लें, हमें लाठी आदि से दण्ड नहीं देना चाहिए । किन्तु दूसरों को कठोर से कठोर दण्ड देने में कोई दोष नहीं है। मैं दास या भृत्य बनाने योग्य नहीं हूँ, दूसरे शूद्रादि दास या भृत्य बनाने योग्य हैं। मैं पकड़कर कैद करने या गिरफ्तार करने लायक नहीं हूँ, किन्तु दूसरे प्राणियों को पकड़कर बन्धन में डालना चाहिए। हम ब्राह्मण या तापस हैं, हमें किसी प्रकार का कष्ट नहीं देना चाहिए, किन्तु दूसरों को कष्ट देने में कोई दोष नहीं है । हम ब्राह्मण या तापस हैं, हमें कोई डरा, धमका नहीं सकता । दूसरों को डरा-धमकाकर काम लेने में कोई दोष नहीं है। इस प्रकार असम्बद्ध प्रलाप करने वाले ये अन्यतीर्थी विषमदृष्टि हैं, इनके पास न्यायसंगत कोई बात नहीं है, अन्यथा, अपने आपको अदण्डनीय और दूसरों को दण्डनीय ये लोग कैसे कहते ? इसलिए इनमें प्रथम अहिंसा व्रत तो है ही नहीं, सत्य आदि अन्य व्रत भी ऐसे ऊटपटांग उपदेशों के कारण नहीं हैं। ये कामिनियों के राग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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