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________________ १३८ सूत्रकृतांग सूत्र रंग में तथा इन्द्रिय-विषयों के उपभोग में अत्यन्त आसक्त, मूच्छित, मोहित रहते हैं । सम्यग्ज्ञान न होने के कारण वे रात-दिन विषयभोगों की तलाश में रहते हैं, उन्हीं में रचे-पचे रहते हैं, उनकी चित्तवृत्ति निरन्तर विषयभोगों में लगी रहती है । दशवैकालिक सूत्र में कहा है 'मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं' स्त्री-संसर्ग अधर्म का मूल और दोषों की खान है । अत: जो स्त्री में आसक्त है, वह सब विषयों में आसक्त है । ऐसे स्त्री तथा काम-भोगों में आसक्त अन्यतीर्थी चार, पाँच, छह से लेकर दस वर्ष तक थोड़े या ज्यादा विषयोपभोग करके मृत्यु के समय शरीर को छोड़कर किसी आसुरी देवयोनि में किल्विषी देवों में उत्पन्न होते हैं । वहाँ से पतन होने पर तिर्यञ्च योनि में बकरा आदि के रूप में या मनुष्य लोक में गूंगा, जन्मान्ध या जन्म से मूक अज्ञानी होते हैं । इस प्रकार लोभी या विषयलोलुप व्यक्तियों के लोभप्रत्ययिक सावद्य (पाप) कर्म का बन्ध होता है। यह है लोभप्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप। अतः विवेकी एवं सुसंयमी साधुओं को अर्थदण्ड से लेकर लोभप्रत्ययिक तक के १२ क्रियास्थानों को कर्मबन्ध का कारण जानकर सर्वथा त्याग करना चाहिए । मूल पाठ अहावरे तेरसमे किरियट्ठाणे इरियावहिएत्ति आहिज्जइ। इह खलु आत्तत्ताए संवुडस्स अणगारस्स ईरियासमियस्स भासासमियस्स एसणासमियस्स आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमियस्स उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमियस्स मणसमियस्स वयसमियस्स कायसमियस्स मणगुत्तस्स वयगुतस्स कायगुत्तस्स गुत्तिदियस्स गुत्तबंभयारिस्स आउत्तं गच्छमाणस्स आउत्तं चिट्ठमाणस्स आउत्तं णिसीयमाणस्स आउत्तं तुयट्टमाणस्स आउत्तं भुजमाणस्स आउत्तं भासमाणस्स आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुछणं गिण्हमाणस्स वा, णिक्खिवमाणस्स वा, जाव चक्खुपम्हणिवायमवि अस्थि विमाया सुहुमा किरिया ईरियावहिया नाम कज्जइ, सा पढमसमए बद्धा पुट्ठा बितीय समए वेइया तइयसमए णिज्जिण्णा सा बद्धा पुट्ठा उदीरिया वेइया णिज्जिण्णा सेयकाले अकम्मे यावि भवइ। एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जंति आहिज्जइ । तेरसमे किरियट्ठाणे ईरियावहिएत्ति आहिज्जइ। से बेमि जे य अतीता जे य पडुपन्ना जे य आगमिस्सा अरिहंता भगवंता सत्वे ते एयाइं चेव तेरस किरियट्ठाणाई भासिसु वा, भासेंति वा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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