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सूत्रकृतांग सूत्र
से अपना निर्वाह करने हेतु रहते हैं, कई एकान्त में निवास करते हैं, या किसी गुप्त क्रिया को करने वाले होते हैं, यद्यपि ये पाखण्डी लोग त्रस प्राणी का घात नहीं करते, तथापि समस्त सावध कर्मों से निवृत्त नहीं हैं, समस्त प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की हिंसा से विरत नहीं हैं। (ते अप्पणो सच्चामोसाइं एवं विउंजंति) वे कुछ सच्ची और कुछ झूठी ऐसी बातें कहा करते हैं- (अहं ण हंतव्वो अन्ने हंतव्वा, अहं ण अज्जावेयव्वो अन्ने अज्जावेयव्वा, अहं ण परिघेतव्वो अन्न परिघेतव्वा, अहं ण परितावेयव्वो अन्ने परितावेयव्वा, अहं ण उद्दवेयव्वो अन्ने उद्दवेयव्वा) मैं मारे जाने योग्य नहीं हूँ, किन्तु दूसरे प्राणी मारे जाने योग्य (मारे जा सकते) हैं, मैं आज्ञा देने योग्य नहीं हूँ, किन्तु दूसरे प्राणी आज्ञा देने योग्य हैं, मैं दासी-दास आदि के रूप में गुलाम बनाने या गिरफ्तार करने योग्य नहीं हूँ, दूसरे प्राणी दास आदि बनाने या गिरफ्तार करने योग्य हैं, मैं सन्ताप (कष्ट) देने योग्य नहीं हूँ, मगर दूसरे जीव कष्ट देने योग्य हैं, मैं उपद्रव के या भयभीत करने के योग्य नहीं हूँ, जबकि दूसरे प्राणी उपद्रव या भय के योग्य हैं। (एवमेव ते इत्थिकामेहिं मूच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववन्ना) इस प्रकार के उपदेष्टा वे पूर्वोक्त पुरुष स्त्री और कामभोगों में सदा आसक्त रहते हैं, ये सतत विषयभोग की तलाश में रहते हैं, इनकी चित्तवृत्ति सदा विषय-भोगों में लगी रहती है, (जाव वासाई चउपंचमाइ छहसमाइं अप्पयरो वा भुज्जयरो वा भोगभोगाइं भुजित्तु कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु आसुरिएसु किदिवसिएसु ठाणेसु उववत्तारो भवंति) वे चार, पांच, छह या दस वर्ष तक थोड़े या अधिक कामभोगों का उपभोग कर मृत्यु के समय मृत्यु प्राप्त करके असुरलोक में किल्विषी देव के स्थानों में उत्पन्न होते हैं, (ततो विप्पमुच्चमाणे भुज्जो मुज्जो एलमूयत्ताए तमूयत्ताए जाइयत्ताए पच्चायंति) उक्त देवयोनि से च्युत होकर वे बार-बार गूगे, जन्मान्ध या जन्म से मूक होते हैं । (एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जंति आहिज्जइ) इस प्रकार उस लोभी विषयलोलुप पाखंडी को लोभप्रत्ययिक सावद्य (पाप) कर्म का बन्ध होता है। (दुवालसमे किरियट्ठाणे लोभवत्तिएत्ति आहिए) यह लोभप्रत्ययिक नामक बारहवें क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया। (इच्चेयाई दुवालसकिरियाणाई दविएणं समणेण वा माहणण वा सम्म सुपरिजाणिअव्वाइं भवंति) इन पूर्वोक्त बारह क्रियास्थानों को द्रव्य मुक्ति जाने योग्य श्रमण या माहन को सम्यक् प्रकार से जान लेना चाहिए और जानकर इनका त्याग करना चाहिए।
व्याख्या बारहवाँ क्रियास्थान : लोभप्रत्ययिक
इस सूत्र में लोभप्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप बताते हुए आरण्यक (वनवासी) तापसों आदि की चर्या को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। लोभप्रत्ययिक क्रियास्थान के नमूने इस प्रकार हैं-जैसे कई लोग वन में पत्तों की कुटिया
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