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सूत्रकृतांग सूत्र
चतुर होते हैं । वे आर्य होकर भी दूसरों पर अपना प्रभाव जमाने के लिए अनार्य भाषाओं में बोलते हैं। उनसे पूछा जाता है किसी अन्य विषय में, और वे उत्तर देते हैं किसी अन्य विषय का । कई-कई व्याकरण और तर्क में ऐसे पारंगत होते हैं कि वादी को शास्त्रार्थ में पराजित करने हेतु व्यर्थ का तर्कजाल प्रस्तुत कर देते हैं, अथवा अपने अज्ञान को छिपाने के लिए व्यर्थ का शब्दाडम्बर करके समय गँवाते हैं, वे दूसरी बात कहना चाहते हुए भी और ही कोई अप्रासंगिक बात कह डालते हैं । कपट-कार्यों में फँसे हुए वे मायावी निन्दनीय अकार्यों में रत रहते हैं । जैसे कोई मूर्ख आदमी अपने हृदय में चुभे हुए तीखे काँटे या तीर को पीड़ा के डर से स्वयं नहीं निकलता, न दूसरों से निकलवाता है तथा उसे छिपा - छिपाकर व्यर्थ ही उसकी पीड़ा से दुःखी होता रहता है । इसी तरह कपटी पुरुष भी हृदयस्थित कपट को निन्दा के भय से बाहर निकालकर नहीं फेंकता, अपने कुकृत्यों को निन्दा के डर से छिपाता है । वह अपनी आत्मसाक्षी से अपने किये हुए मायाचार की निन्दा ( पश्चात्ताप ) भी नहीं करता, न गुरु या बड़ों के सामने उस दुष्कृत्य की आलोचना करता है, न गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रगट करता है । अपराध विदित हो जाने पर गुरुजनों द्वारा निर्दिष्ट प्रायश्चित्त का आचरण भी वह नहीं करता । इस प्रकार कपटाचरण द्वारा अपने समस्त कारनामों को छिपाने वाले व्यक्ति की इस लोक में अत्यन्त निन्दा होती है, जनता का विश्वास उस पर से उठ जाता है, वह किसी समय दोष न करने पर भी दोषी माना जाता है। मरने के पश्चात् परलोक में भी वह नीच और दुःखपूर्ण गति या योनि में जाता है । वह खासकर तिर्यञ्चयोनि में बार-बार जन्म लेता है, नरकगति तो उसके लिए सुरक्षित है ही । ऐसा पुरुष दूसरों को ठगकर या धोखा देकर कभी लज्जित नहीं होता, अपितु प्रसन्न होता है । वह दूसरों को ठगकर अपने को धन्य मानता है । उसकी चित्तवृत्ति सदैव दूसरों को ठगने में लीन रहती है, उसके सब कार्य प्रायः परवंचनात्मक होते हैं । उसके हृदय - मन्दिर में कभी शुभ भावों का दीपक नहीं जलता । ऐसा पुरुष माया- प्रत्ययिक पापकर्म का बन्ध करता रहता है । ऐसा पुरुष मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान का भागी होता है । यह ग्यारहवें क्रियास्थान - मायाप्रत्ययिक का स्वरूप बताया गया है ।
मूल पाठ
अहावरे बारसमे किरियद्वाणे लोभवत्तिएत्ति आहिज्जइ । जे इमे भवंति तं जहा- आरन्निया, आवसहिया, गामंतिया कण्हुई रहस्सिया णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया सव्वपाणभूयजीवसत्तेहि ते अप्पणो सच्चामोसाई एवं विरंजंति, अहं ण हंतव्वो अन्ने हंतव्वा, अहं ण अज्जावेयव्वो अन्ने अज्जावेयव्वा, अहं ण परिघेतव्वो अन्ने परिघेतव्वा, अहं ण परितावे
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