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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
हैं वे और ही बात। (से जहाणामए केइ पुरिसे अंतोसल्ले तं सल्लं णो सयं णिहरइ) जैसे कोई पुरुष अपने हृदय में गड़ी हुई तीखी कील को स्वयं नहीं निकालता, (णो अन्नेण णिहरावेइ) न किसी दूसरे से वह निकलवाता है। (णो पडिविद्ध सेइ) तथा उस कील को भी नष्ट नहीं करता, (एवमेव णिण्हवेइ, अविउट्टमाणे अंतो अंतो रियइ) किन्तु उस काँटे या कील को अन्दर ही अन्दर व्यर्थ ही छिपाता है, तथा उससे पीड़ित होकर अन्दर ही अन्दर वेदना भोगता है। (एवमेव माई कटु मायं णो आलोएइ, णो पडिक्कमेइ, णो णिदइ, णो गरहइ, णो विउट्टइ, णो विसोहेइ, णो अकरणाए अब्भुढेइ, णो अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जइ) इसी प्रकार मायावी (कपटी) व्यक्ति माया (छल-कपट) करके उसकी आलोचना नहीं करता, प्रतिक्रमण नहीं करता, उसकी निन्दा नहीं करता, उसकी गर्दा नहीं करता, उसे वहीं मिटाता नहीं, न उसकी शुद्धि करता है, उसे पुनः न करने के लिए उद्यत नहीं होता, और उस पाप के अनुरूप तपश्चरण के रूप में प्रायश्चित्त भी स्वीकार नहीं करता (माई अस्सि लोए पच्चायाइ, माई परंसि लोए पुणो पुणो पच्चायाइ) उस मायी का इस लोक में कोई विश्वास नहीं करता अथवा मरकर (वह) इस लोक में पुनः आ जाता है और परलोक में भी बार-बार जन्म ग्रहण करता है अथवा परलोक में भी बार-बार वह नीच गतियों में जाता है। (निदइ, गरहइ, पसंसइ, णिच्चरइ, ण नियट्टइ णिसिरियं दंडं छाएइ) वह दूसरे की निन्दा और अपनी प्रशंसा करता है, दूसरे से घृणा करता है, बुरे कार्य करता है, असत्कर्मों से निवृत्त नहीं होता, वह प्राणी को दण्ड देकर भी उसे छिपाता है, प्रकट नहीं करता, (माई असमाहडसुहलेस्से यावि भवइ) ऐसा मायी शुभ लेश्याओं-अच्छे विचारों से कोसों दूर रहता है। (एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ) ऐसे मायावी पुरुष के मायाप्रत्ययिक सावध (पाप) कर्म का बन्ध होता है । (एक्कारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिएत्ति आहिए) इस प्रकार भगवान् ने मायाप्रत्ययिक नामक ग्यारहवें क्रियास्थान का स्वरूप बताया है।
व्याख्या
ग्यारहवाँ क्रियास्थान : मायाप्रत्ययिक इस सूत्र में मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप बताकर उसकी प्रक्रिया का विश्लेषण किया गया है।
इस जगत् में बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो बाहर से बड़े ही सभ्य, भले और सदाचारी मालूम होते हैं, परन्तु अन्दर ही अन्दर वे छिपकर पापाचार करते हैं, वे लोगों पर अपने विश्वास का सिक्का जमाकर बाद में उन्हें ठगते और धोखा देते रहते हैं, वे उलुक (उल्लू) के समान अत्यन्त तुच्छ (हलकी) वृत्ति वाले होकर भी अपने आपको पहाड़ के समान भारी समझते हैं । वे कपट-क्रिया करने में बड़े
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