________________
१२६
सूत्रकृतांग सूत्र तत्प्रत्ययिकं सावद्यमाधीयते । अष्टमं क्रियास्थानम् अध्यात्मप्रत्ययिकमित्याख्यातम् ।। सू० २४ ॥
अन्वयार्थ (अहावरे अट्ठमे किरियट्ठाणे अज्झत्थवत्तिएत्ति आहिज्जइ) इसके पश्चात् आठवाँ क्रियास्थान है, जो अध्यात्मप्रत्ययिक कहलाता है। (से जहाणामए केइ पुरिसे पत्थि णं केइ किंचि विसंवा देति) जैसे कोई व्यक्ति ऐसा होता है, जिसे कोई क्लेश देने वाला न हो तो भी (सयमेव होणे दीणे दुठे दुम्मणे ओहयमणसंकप्पे चितासोगसागरसंपविट्ठे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए भूमिगयदि ट्ठिए झियाइ) वह अपने आप ही दीन, हीन, दुःखित, उदास तथा मन में दुःसंकल्प करता रहता है ; तथा चिन्ता और शोक के समुद्र में डूबा रहता है, हथेली पर ठुड्डी रखे एवं नीचे की
ओर मुंह किये हुए आत ध्यान करता रहता है । (तस्स णं अज्झत्थया असंसइया चत्तारि ठाणा एवं आहिज्जति) निःसंदेह ही उसके हृदय में चार बातें पड़ी हैं, ऐसा जाना जाता है । (तं जहा-कोहे माणे माया लोहे) वे चार इस प्रकार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । (अज्झत्थमेव कोहमाणमायालोहे) क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार आध्यात्मिक भाव ही हैं । (एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ) इस प्रकार का कार्य करने वाले पुरुष को अध्यात्मसम्बन्धी सावद्य (पाप) कर्म का बन्ध होता है। (अट्ठमे किरियट्ठाणे अज्झत्थवत्तिएत्ति आहिए) यह आठवाँ अध्यात्मप्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया है ।
व्याख्या आठवाँ क्रियास्थान : अध्यात्मप्रत्ययिक
इस सूत्र में आठवें क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया है । इसका नाम अध्यात्मप्रत्ययिक है। इसका स्वरूप इस प्रकार है- एक व्यक्ति है, जिसका कोई अपमान या तिरस्कार नहीं करता, न ही उसके धन, पुत्र या पशु का नाश हुआ है, न किसी प्रकार की कोई हानि हुई है, न किसी ने उसे कष्ट पहुँचाया है; अर्थात् दुःख का कोई भी कारण न होने पर भी दीन-हीन, उदास और दुःखी होता रहता है, मन ही मन कुढ़ता रहता है, मन में व्यर्थ के संकल्प-विकल्प करता रहता है, तथा चिन्ता और शोक के सागर में डूबता-उतराता रहता है, वह हथेली पर ठुड्डी रखे एवं नीचा मुंह किये हुए आर्तध्यान करता रहता है। ऐसा विवेकहीन व्यक्ति कभी धर्मध्यान नहीं करता। वास्तव में ऐसे व्यक्ति की चिन्ता या आर्तध्यान का कोई न कोई आन्तरिक कारण होना चाहिए । शास्त्रकार कहते हैं-'तस्स णं....चत्तारि ठाणा एवमाहिज्जति' अर्थात् निःसंदेह ऐसे पुरुष की चिन्ता के ४ कारण हो सकते हैं--क्रोध, मान, माया और लोभ । ये चारों भाव आत्मा से उत्पन्न होने के कारण आध्यात्मिक कहलाते हैं; यद्यपि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org