SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान क्रोध आदि आत्मा के स्वाभाविक धर्म नहीं हैं क्योंकि वे चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से पैदा होते हैं। यदि उन्हें आत्मा के स्वाभाविक धर्म मान लिया जायेगा तो मुक्तावस्था में भी ज्ञान-दर्शन के समान उनका अस्तित्व मानना पड़ेगा, यह अभीष्ट नहीं है । इसलिए क्रोध आदि आत्मा के असाधारण वैभाविकभाव हैं । मैं क्रुद्ध हूँ, ऐसा भान भी होता है, इस कारण व्यवहारनय से क्रोधादि आत्मा के धर्म मान लिये गये हैं । ये क्रोधादि विकार ही बाह्य कारणों के अभाव में चिन्ता, उदासीनता आदि के कारण बनते हैं । क्रोधादि ये चारों विकारीभाव मन को दूषित करते हैं, विचारों को मलिन बनाते हैं। जिस व्यक्ति में ये प्रबल होकर रहते हैं, उसे आध्यात्मिक सावद्य-पापकर्म का बन्ध होता है । यही आठवें क्रियास्थान का स्वरूप है । मूल पाठ अहावरे णवमे किरियट्ठाणे माणवत्तिएत्ति आहिज्जइ । से जहाणामए केई पुरिसे जातिमएण वा, कुलमएण वा, बलमएण वा, रूबमएण वा, तवोमएण वा, सुयमएण वा, लाभमएण वा, इस्सरियमएण वा, पन्नामएण वा, अन्नयरेण वा, मयठाणेणं मत्ते समाणे परं होलेइ, निदेइ, खिसइ, गरहइ, परिभवइ, अवमण्णेइ, इत्तरिए अयं, अहमंसि पुण विसिट्ठजाइकुलबलाइगुणोववेए, एवं अप्पाणं समुक्कसे, देहचुए कम्मवितिए अवसे पयाइ । तं जहा--गब्भाओ गब्भं, जम्माओ जम्मं, माराओ मारं, परगाओ णरगं, चंडे थद्ध, चवले माणियावि भवइ। एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ । णवमे किरियट्ठाणे माणवत्तिएत्ति आहिए ॥ सू० २५ ॥ संस्कृत छाया अथाऽपरं नवमं क्रियास्थानं, मानप्रत्ययिकमित्याख्यायते। तद्यथा नाम कश्चित् पुरुष: जातिमदेन वा, कुलमदेन वा, बलमदेन वा, रूपमदेन वा, तपोमन वा, श्रुतमदेन वा, लाभमदेन वा, ऐश्वर्यमदेन वा, प्रज्ञामदेन वा, अन्यतरेण वा मदस्थानेन मत्तः परं हीलयति, निन्दति, जुगुप्सते, गर्हति, परिभवति अवमन्यते, इतरोऽयम्, अहमस्मि पुनः विशिष्ट जाति कुलबलादि गुणोपेतः एवमात्मानं समुत्कर्षयेत् । देहच्युतः कर्मद्वितीयः अवशः प्रयाति, तद्यथा-गर्भतोगर्भम्, जन्मतोजन्म, मरणान्मरणम्, नरकान्न रकम्, चण्डः स्तब्धः चपलः मान्यपि भवति । एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं सावद्यमाधीयते । नवमं क्रियास्थानं मानप्रत्ययिकमित्याख्यायतम्।।। सू० २५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy