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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
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अदत्त ग्रहण करने वाले अन्य व्यक्ति का अनुमोदन करता है, (एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ) इस प्रकार करने वाले उस व्यक्ति को अदत्तादान-सम्बन्धित पाप लगता है । (सत्तमे किरियट्ठाणे अदिन्नादाणवत्तिएत्ति आहिए) यों सप्तम अदत्तादानप्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया है।
व्याख्या
सप्तम क्रियास्थान : अदत्तादानप्रत्ययिक इस सूत्र में सातवें क्रियास्थान का वर्णन किया गया है। इसका नाम अदत्तादानप्रत्ययिक क्रियास्थान है। जिस वस्तु का स्वामी हो अथवा न भी हो, तो भी उस पदार्थ को उससे बिना पूछे या उसकी इच्छा के बिना या दिये बिना ग्रहण कर लेना या अपने अधिकार में कर लेना, अदत्तादान या चोरी है। अदत्तादान से सम्बन्धित क्रियास्थान अदत्तादानप्रत्ययिक क्रियास्थान कहलाता है। जो व्यक्ति अपने लिए तथा परिवार, ज्ञातिजन, घर या अन्य किसी प्रियजन के लिए स्वयं बिना दिये ग्रहण करता है, दूसरों से इसी प्रकार ग्रहण कराता है, या जो इस प्रकार ग्रहण करता है, उसे अच्छा समझता है, उसे अदत्तादान या चोरी करने का पाप लगता है । यह सातवें अदत्तादानप्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप है।
मूल पाठ अहावरे अट्ठमे किरियट्ठाणे अज्झत्थवत्तिएत्ति आहिज्जइ । से जहाणामए केइ पुरिसे णत्थि णं केइ किंचि दिसंवादेति सयमेव होणे दोणे दुठे दुम्मणे ओहयमणसंकप्पे चितासोगसागरसंपविठे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए भूमिगयदिठ्ठिए झियाइ । तस्स णं अज्झत्थया असंसइया चत्तारि ठाणा एवमाहिज्जंति, तं जहा–कोहे, साणे, माया, लोहे, अज्झत्थमेव कोह-माण-माया-लोहे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ। अट्ठमे किरियट्ठाणे अज्झत्थवत्तिएत्ति आहिए ॥ सू० २४ ॥
संस्कृत छाया अथाऽपरमष्टमं क्रियास्थानमध्यात्मप्रत्ययिकमित्याख्यायते । तद्यथा नाम कश्चित् पुरुष: नास्ति कोऽपि किंचिद् विसंवादयिता स्वयमेव हीनो दीनो दुष्ट: दुर्मनाः उपहतमनःसंकल्पः चिन्ताशोकसागरसंप्रविष्ट: करतलपर्यस्तमुखः आर्तध्यानोपगतः भूमिगतदृष्टिः ध्यायति । तस्य खलु आध्यात्मिकानि असंशयितानि चत्वारि स्थानानि एवमाख्यायन्ते, तद्यथा-क्रोधो मानं माया लोभः, आध्यात्मिका एव क्रोध-मान-माया-लोभाः । एवं खलु तस्य
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