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सूत्रकृतांग सूत्र
अन्येनापि निसर्जयति, अन्यमपि निसृजन्तं समनुजानाति हिंसादण्डः । एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं सावद्यमित्याधीयते । तृतीयं दण्डसमादानं हिंसादण्डप्रत्ययिकमित्याख्यातम् ॥ सू० १६ ।।
अन्वयार्थ (अहावरे तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिएत्ति आहिज्जइ) इसके पश्चात् तीसरा क्रियास्थान हिंसादण्डप्रत्ययिक कहा जाता है। (से जहाणामए केइ पुरिसे ममं वा, ममि वा, अन्नं वा, अग्निं वा, हिसिसु वा, हिंसइ वा, हिसिस्सइ वा तं दंडं तसथावरेहि पाहि सयमेव णिसिरति) जैसे कोई पुरुष त्रस और स्थावर प्राणियों को इसलिए दण्ड देता है कि 'इस (त्रस या स्थावर) जीव ने मुझे या मेरे सम्बन्धी को तथा दूसरे को या दूसरे के सम्बन्धी को मारा था, मार रहा है या मारेगा।' (अण्णणवि णिसिरावेति, अन्नवि णिसिरंतं समणुजाणइ) तथा वह दूसरे से बस और स्थावर प्राणी को दण्ड दिलाता है एवं त्रस और स्थावर प्राणी को दण्ड देते हुए पुरुष को वह अच्छा मानता है। (हिंसादंडे) ऐसा पुरुष प्राणियों को हिसारूप दण्ड देता है । (एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जंति आहिज्जइ) ऐसे पुरुष को हिंसाप्रत्ययिक सावध कर्म का बन्ध होता है। (तच्चे वंडसमादाणे हिंसावत्तिएत्ति आहिए) इस प्रकार यह तीसरा क्रियास्थान हिंसादण्डप्रत्ययिक कहा गया।
व्याख्या
हिंसादण्डप्रत्ययिक : स्वरूप और विश्लेषण
इस सूत्र में हिंसादण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान का निरूपण किया गया है। हिंसादण्ड क्रिया कैसी होती है ? इसे बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं कि कई लोग ऐसे होते हैं, जो प्राणियों को इस आशंका से खत्म कर देते हैं या उनको नष्ट-भ्रष्ट कर देते है कि 'यह जीवित रहकर मुझे न मार डालें ।' जैसे कंस ने देवकी के पुत्रों को इसलिए मरवाने का उपक्रम किया था कि वे भविष्य में मुझे मार डालेंगे। तथा बहुत से मनुष्य अपने सम्बन्धी के घात की आशंका से क्रोधवश प्राणियों का नाश कर डालते हैं, जैसे परशुराम ने अपने पिता के घात से क्रुद्ध होकर कार्तवीर्य को मार डाला था। बहुत से मनुष्य सिंह, सर्प, बिच्छू आदि प्राणियों का इसलिए वध कर डालते हैं कि यह जिंदा रहेगा तो अन्य अनेक प्राणियों का सफाया कर देगा। इस प्रकार जो पुरुष त्रस, या स्थावर प्राणी का स्वयं घात करता है अथवा दूसरों से घात करवाता है या प्राणिघात करते हुए व्यक्ति का समर्थन-अनुमोदन करता है। उसे हिंसादण्डहेतुक सावध (पाप) कर्म का बन्ध होता है। यह तीसरे हिंसादण्डप्रत्ययिक नामक क्रियास्थान का विवेचन है।
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