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________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान ११७ पशु आदि के पोषणार्थ प्राणिघात नहीं करते, अपितु बिना ही किसी प्रयोजन के कौतुक या मनोरंजनवश प्राणिघात जैसा निन्द्यकर्म करते हैं। ऐसा व्यक्ति अपने, अपने परिवार के या अपने घर के पोषण-संवर्द्धन के लिए या श्रमण-माहन के निर्वाह के लिए या अपने प्राणों की रक्षा के लिए पशुओं को नहीं मारता, अपितु निष्प्रयोजन हो प्राणियों को 'दण्ड देता हुआ वह मूर्ख उन्हें मारता-पीटता है, उनको काटता है, छेदता है, काट-काटकर पृथक् करता है। उनके अंगोपांगों को उखाड़ता है। उन पर उपद्रव करता है। वह मूर्ख विवेक को तिलांजलि देकर उन प्राणियों के साथ बिना मतलब ही जन्म-जन्मान्तर तक के लिये वैर बाँध लेता है। इससे बढ़कर मूर्खता और क्या हो सकती है ? वह स्थावर प्राणियों को भी बिना ही प्रयोजन के दण्ड देता रहता है । बिना ही मतलब मिट्टी खोदता है, पेड़ उखाड़ता है, वृक्ष के पत्ते नोंचता है, आग जलाता है, हवा चलाता है, पानी व्यर्थ ही ढोलता है, तथा बिना ही प्रयोजन नदी, तालाब, या जलशय के तट पर जाकर या वनों, पर्वतों, दुर्गों आदि में आग लगा देता है। बिना किसी आवश्यकता के वह इन चीजों को नष्ट-भ्रष्ट करता है, ऐसा करके वह प्राणियों को अनर्थदण्ड देता है, इतना ही नहीं स्थावर प्राणियों का उपमर्दन वह स्वयं तो करता ही है, दूसरों से भी उपमर्दन करवाता है और जो लोग स्थावर जीवों का घात करते हैं, उनकी प्रशंसा करता है, उनको इनाम देता है, उनकी पीठ ठोकता है। ऐसा मूर्ख व्यक्ति जो निरर्थक ही त्रस-स्थावर प्राणियों का घात करके सावद्यकर्म-बन्धन कर लेता है, वह उसके लिए अनर्थदण्ड क्रियास्थान हुआ। इस प्रकार दूसरे अनर्थदण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान का निरूपण किया गया है। मूल पाठ अहावरे तच्चे दंडसमादाणे हिसादंडवत्तिएत्ति आहिज्जइ । से जहाणामए केइ पुरिसे ममं वा, ममि वा, अन्नं वा, अन्नि वा, हिसिसु वा, हिंसइ वा, हिसिस्सइ वा तं दंडं तसथावरेहि पाहि सयमेव णिसिरति, अण्णेणवि णिसिरावेति, अन्नपि णिसिरंतं समणुजाणइ, हिंसादंडे । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जंति आहिज्जइ। तच्चे दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिएत्ति आहिए ॥ सू० १६ ॥ संस्कृत छाया अथाऽपरं तृतीयं दण्डसमादानं हिंसादण्डप्रत्ययिकमित्याख्यायते । तद्यथा नाम कश्चित् पुरुष: मां वा, मदीयं वा, अन्यं वा, अन्यदीयं वा, अवधीत् हिनस्ति, हिंसिष्यति वा तं दण्डं त्रसे स्थावरे प्राणे स्वयमेव निसृजति, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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