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________________ सूत्रकृतांग सूत्र केइ पुरिसे जे इमे थावरा पाणा भवंति, तं जहा---इक्कडाइ वा, कडिणाइ वा, जंतुगाइ वा, परगाइ वा, मोक्खाइ वा, तणाइ वा, कुसाइ वा, कुच्छगाइ दा, पव्वगाइ वा, पलालाइ वा) जैसे कोई पुरुष प्रयोजन बिना ही इन स्थावर प्राणियों को दण्ड देता है, जैसे कि इक्कड, कठिन, जन्तुक, परक, मुस्ता (मोथा), तृण, कुश, कुच्छक, पर्वक और पलाल नामक विभिन्न वनस्पतियों को व्यर्थ ही दण्ड देता है। (णो पुत्तपोसणाए, णो पसुपोसणाए, णो अगारपरिबूहणयाए, णो समणमाहणपोसणयाए) वह इन वनस्पतियों को पुत्र या पशु के पोषणार्थ, या गृहरक्षार्थ या श्रमण-माहन के पोषणार्थ दण्ड नहीं देता, (णो तस्स सरीरगस्स किंचि विप्परियाइत्ता भवंति) तथा वे वनस्पतियाँ उसके शरीर की रक्षा के लिए भी कुछ काम नहीं आतीं, (से हंता, छेत्ता, भेत्ता, लुपयित्ता, विलुपयित्ता, उद्दवइत्ता) तथापि वह अज्ञ निरर्थक ही उनका हनन, छेदन, भेदन, खण्डन, मर्दन और उपद्रव करता है। (उज्झिउं बाले अणट्ठादंडे वेरस्स आभागी भवति) विवेक का त्याग करके वह मूर्ख व्यर्थ ही प्राणियों को दण्ड देकर वृथा ही उन प्राणियों के वैर का भागी वनता है। (से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा, दहंसि वा, उदगंसि वा, दवियंसि वा, वलयंसि वा णमंसि वा) जैसे कोई पुरुष नदी के तट पर, तालाब पर, किसी जलाशय पर, तृणराशि पर तथा नदी आदि द्वारा घिरे हुए स्थान में, एवं अँधेरे से भरे स्थान में, (गहणंसि वा, गहणदुग्गंसि वा, वर्णसि वा, वणदुग्गंसि वा, पव्वयंसि वा, पव्वयविदुग्गंसि वा) किसी गहन दुष्प्रवेश स्थान में, वन में, तथा घोर वन में, किसी दुर्गम स्थान पर या किसी किले पर, पर्वत पर या पर्वत के किसी दुर्ग (किले) पर या गहन स्थान में (तणाई ऊसविय ऊसविय) तिनकों या धास को बिछा-बिछाकर या फैला-फैलाकर (सयमेव अगणिकाय निसिरति) स्वयं अग्नि को जलाता है, (अण्णेणवि णिसिरावेति) या दूसरे से आग लगवाता है, (अण्णवि अगणिकायं णिसिरितं समणुजाणइ) तथा इन स्थानों पर आग जलाते या लगाते हुए व्यक्ति का समर्थन या अनुमोदन करता है। (अणट्ठादंडे) ऐसा व्यक्ति निष्प्रयोजन ही प्राणियों का घात कर निरर्थक दण्ड का भागी बनता है। (एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ) ऐसे पुरुष को निरर्थक प्राणियों के घात का सावद्यकर्म बँधता है। (दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिएत्ति आहिए) यह दूसरा अनर्थदण्डप्रत्ययिक क्रियास्थान कहा गया है। व्याख्या अनर्थदण्ड : क्या, कैसे और किसके लिए इस सूत्र में अनर्थदण्ड का सांगोपांग वर्णन करके उसके स्वामी को अनर्थ दण्ड क्रिया का स्वामी कहा गया है । जगत् में ऐसे कई लोग होते हैं जो बिना ही प्रयोजन के प्राणियों का घात किया करते हैं। ऐसे महामूर्ख व्यक्ति अपने शरीर के लिए या पुत्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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