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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक किये गये, उद्गम-उत्पादन और एषणा दोषों से रहित होने के कारण शुद्ध अग्नि आदि शस्त्र द्वारा परिणत होने से अचित्त बने हुए, अग्नि आदि शस्त्रों द्वारा अत्यन्त निर्जीव किये हुए, एषणा (भिक्षावृत्ति) से प्राप्त, अहिंसक (हिंसा-दोष से रहित) तथा साधु के वेषमात्र से प्राप्त, सामुदायिक भिक्षा (माधुकरी) वृत्ति से प्राप्त, गीतार्थ साधु के द्वारा लिये हए वैयावृत्य (सेवा) आदि ६ कारणों में से किसी कारण से लिए हुए, तथा प्रमाणोपेत, एवं गाड़ी को चलाने के लिए उसकी धुरी पर दिये जाने वाले तेल तथा घाव पर लगाये जाने वाले लेप के समान, सिर्फ संयमयात्रा के निर्वाहार्थ लिये हुए अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्यरूप चतुर्विध आहार को, बिल में प्रवेश करते हुए साँप के समान स्वाद लिये बिना ही आहार का सेवन करे। (अन्नं अन्नकाले, पाणं पाणकाले, वत्थं वत्थकाले, लेणं लेणकाले, सयणं सयणकाले) इस प्रकार जो साधु अन्नकाल में अन्न को, पीने के समय पान को, वस्त्र पहनने के समय में वस्त्र को, मकान में प्रवेश के समय मकान को, और सोने के समय में शय्या आदि को ग्रहण एवं सेवन (उपभोग) करता है, (से भिक्खू मायन्ने) वह साधु प्रत्येक वस्तु की मात्रा अथवा धर्म-मर्यादा को जानने वाला है। (अन्नयरं दिसं अणुदिसं वा पडिबन्ने धम्म आइक्खेज्जा) वह किसी दिशा या विदिशा से आकर धर्म का उपदेश करे । (धम्म आइक्खे विभए किट्टए उवट्ठिएसु वा अणुवट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए) वह साधु धर्म का उपदेश दे, उसकी व्याख्या करे, उसका कीर्तन करे । धर्म सुनने की इच्छा से अच्छी तरह से उपस्थित हों अथवा कौतुक आदि की दृष्टि से उपस्थित जो भी व्यक्ति हों, उन्हें धर्म का उपदेश करे। (संतिविरति उवसमं निव्वाणं सोयवियं अज्जवियं मद्दवियं लाघवियं अणतिवाइयं सवेसि पाणाणं सर्वेसि भूयाणं, सङ्केसि जीवाणं, सर्वोस सत्ताणं अणुवाई किट्टए धम्म) वह साधु शान्ति, विरक्ति, उपशम, इन्द्रियनिग्रह, निर्वाण (मोक्ष), शौच (पवित्रता) आर्जव (सरलता), मृदुता, लघुता, प्राणियों के प्रति अहिंसा आदि धर्मों का उपदेश करता हुआ, समस्त प्राणियों, सभी भूतों, सर्वजीवों और सभी सत्त्वों के कल्याण का विचार करके उपदेश दे । (से भिक्खू धम्म किट्टमाणे णो अन्नस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा, णो पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खज्जा, णो वत्थस्स हेउ धम्ममाइक्खेज्जा, णो लेणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा, णो सयणस्स हेउ धम्ममाइक्खज्जा, णो अन्नेसि विरूवरूवाणं कामभोगाणं हेउं धम्ममाइक्खेज्जा) इस प्रकार धर्म का कीर्तन (उपदेश) करता हुआ वह साधु अन्न के लिए, पान के लिए, मकान के लिए, शय्या के लिए अथवा दूसरे अनेक कामभोगों के साधनों की प्राप्ति के के लिए धर्म का कथन न करे । (अगिलाए धम्ममाइक्खेज्जा नन्नत्थ कम्मणिज्जरठाए धम्ममाइक्खेज्जा) धर्म का उपदेश अग्लान भाव (प्रसन्नचित्त) से करे, कर्मनिर्जरा के सिवाय और किसी फल की प्राप्ति की इच्छा से धर्मोपदेश न करे। (इह खलु तस्स भिक्खुस्स For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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