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सुत्रकृतांग सूत्र
पडविरए) इस कारण से वह भिक्षु महान् कर्मबन्धनों से मुक्त - उपशान्त हो जाता है, शुद्ध संयम में पराक्रम करता है और पापों से निवृत्त हो जाता है। ( जंपि य इमं संपराइयं कम्मं कज्जइ, णो तं सयं करेइ, णो अन्नाणं कारवेइ, अन्नं पि करेंतं ण समणुजाणइ ) जो यह साम्परायिक ( कषाययुक्त होकर संसारवृत्ति करने वाले) कर्मों का बन्धन होता है, उसे वह साधु स्वयं नहीं करता, न वह दूसरों से कराता है, तथा ऐसे साम्परायिक कर्मबन्धन करते हुए को अच्छा नहीं समझता । ( इति से भिक्खू महतो आयाणाओ उवसंते उबट्ठिए पडिविरए) इस कारण वह भिक्षु महान् कर्मबन्ध से उपशान्त हो जाता है, शुद्ध संयम में रत हो जाता है तथा पापों से विरत हो जाता है । ( से भिक्खु जाणेज्जा असणं ४ वा अस्सि पडियाए एवं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छिज्जं अणिसट्ठ अभिहडं आहट टुद्देसियं चेतियं सिया णो सयं भुजइ) यदि साधु यह जान जाय कि अमुक श्रावक ने किसी साधर्मिक साधु को दान देने के लिए प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों का आरम्भ ( हिंसात्मक व्यापार) करके आहार बनाया है अथवा साधु को दान देने के लिए खरीदा है, या किसी से उधार लिया है, या जबरन छीनकर लिया है, अथवा मालिक से पूछे बिना ही ले लिया है, एवं किसी गाँव आदि से साधु के सम्मुख वह आहारादि लेकर आया है, अथवा साधु के निमित्त बनाया है, तो ऐसा दोषयुक्त आहार वह न ले, कदाचित् भूल से ऐसा आहार लेने में आ जाय तो वह स्वयं उसका सेवन न करे । ( णोऽण्णेणं भुंजावेइ) दूसरे को भी वह दोषयुक्त आहार न खिलाए ( अण्णंपि भुजतं णो समणुGrus) ऐसा आहार खाने वाले को अच्छा न समझे । ( इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरए) जो साधु ऐसे दोषयुक्त आहार का त्याग करता है, इस कारण से वह महान् कर्मबन्ध से उपशान्त (दूर) रहता है, वह शुद्ध संयम में उद्यत रहता है और पापों से विरत रहता है। (से भिक्खू अह पुणेवं जाणेज्जा, तं विज्जइ तेसि परक्कमे जस्सट्ठा ते वेइयं सिया, तं जहा - अप्पणी पुत्ता इणट्ठाए जाव आएस ए पुढो पहेणाए सामासार पायरासाए संणिहिसंणिचओ किज्जइ एएसि माणवाणं भोयणाए ) अगर वह साधु यह जान जाय कि गृहस्थ ने जिनके लिए आहार बनाया है, वे साधु नहीं, अपितु दूसरे हैं; जैसे कि गृहस्थ ने अपने लिए, अपने पुत्रों के लिए अथवा अतिथि के लिए या किसी दूसरे स्थान पर भेजने के लिए या रात्रि में खाने के लिए अथवा सुबह के नाश्ते के लिए वह आहार बनाया है, अथवा इस लोक में जो दूसरे मनुष्य हैं, उनके लिए उसने आहार का संग्रह किया है, (तत्थ भिक्खू परकडं परणिट्ठियं उग्गमुप्पायनेसणासुद्ध सत्याइयं सत्यपरिणामियं अविहिसियं एसियं वेसिय सामुदाणियं पत्तमसणं कारणट्ठा पमाणजुत्तं अक्खोव जणवणलेवण भूयं संजमजायामायावत्तियं बिलमित्र पन्नगभूएणं अध्वाणं आहार आहारज्जा) यदि ऐसा आहार हो तो भिक्षु दूसरे के द्वारा और दूसरे के लिए
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