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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक तथा समाधियुक्त होकर रहे, और वह अपनी क्रिया से परलोक में कामभोग की प्राप्ति की आकांक्षा न करे । (इमेण मे दिट्ठेण वा सुएण वा मएण वा विन्नाएण वा इमेण वा सुचरितवनियमबं भचेरवासेण वा इमेण वा जाया मायाबुत्तिएणं धम्मेणं इओ चुए पेच्चा देवे सिया) और वह साधु यह भी आकांक्षा न करे कि यह इतना ज्ञान मैंने जाना देखा है, सुना है, अथवा मनन किया है एवं विशिष्ट रूप से अभ्यास किया है तथा यह जो मैंने उत्तम चारित्र (आचरण) तप, नियम और ब्रह्मचर्य का पालन किया है, तथा अपनी संयमयात्रा एवं धर्मपालन के कारणभूत शरीर के निर्वाह मात्र के लिए शुद्ध आहार ग्रहण किया है, 'इन सब कर्मों के फलस्वरूप शरीर छोड़ने के पश्चात् मुझे परलोक में देवगति प्राप्त हो । मैं देव बन जाऊँ ।' ( कामभोगाण - वसवत्ती सिद्ध वा अदुक्खमसुभे) तथा ऐसी कामना भी साधु न करे कि 'समस्त कामभोग मेरे अधीन हों, मैं अणिमा आदि सिद्धियों से सम्पन्न बनूँ, मैं सब दुःखों एवं अशुभ कर्मों से रहित होऊँ ।' ( एत्थ वि सिया, एत्थ वि णो सिया) क्योंकि तप आदि के द्वारा सभी कामनाओं की प्राप्ति ( पूर्ति) कभी होती है और कभी नहीं भी होती । (जे भिक्खू सद्दहिं रूवेहिं गंधेहिं रसेहि फासेहिं अमुच्छिए) इसी प्रकार जो भिक्षु मनोहर शब्दों, मनोज्ञ रूपों, मनोज्ञ रसों, गन्धों और कोमल स्पर्शो में आसक्त न रहता हुआ (कोहाओ, माणाओ, मायाओ, लोहाओ, पेज्जाओ, दोसाओ, कलहाओ, अब्भक्खाणाओ, पेसुनाओ, परपरिवायाओ, अरइरईओ, मायामोसाओ, मिच्छादंसण सल्लाओ विरए) क्रोध, मान, माया, लोभ, राग ( मोह), द्व ेष, कलह, दोषारोपण, पैशुन्य ( चुगली), परनिन्दा, संयम में अप्रीति, असंयम में प्रीति, कपट सहित झूठ, मिथ्यादर्शनरूपी शल्य से विरक्त रहता है । ( इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरए से भिक्खू ) इस प्रकार उस भिक्षु के महान् कर्मों के आदान (बन्ध ) उपशान्त हो जाते हैं, वह उत्तम संयम में उद्यत ( उपस्थित) हो जाता है, वह पापों से प्रतिनिवृत्त हो जाता है । जे इमे तस्थावरा पाणा भवति, ते णो सयं समारंभइ, णोऽर्णोह समारंभावेंति, अन्ने समारंभते विण समजाणंति) वह साधु तस और स्थावर प्राणियों का स्वयं आरम्भ ( हिंसाजनक प्रवृत्ति - व्यापार ) नहीं करता, दूसरों से आरम्भ नहीं कराता, तथा आरम्भ करते हुए को अच्छा नहीं जानता ( इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिfare) इस कारण से वह साधु महान् कर्मों के आदान ( बन्धन) से उपशान्त हो जाता है, वह शुद्ध समय में उद्यत होता है, तथा पापकर्मों से निवृत्त होता है । (जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा ते णो सयं परिगिद्धति णोऽण्णेण परिगिण्हावेंति, अन्नं परिगिण्हतंपि ण समणुजाणंति) जो ये सचित्त या अचित्त कामभोग ( के साधन ) हैं, उन्हें वह स्वयं ग्रहण नहीं करता, न दूसरों से ग्रहण कराता है, तथा उन्हें ग्रहण करने वाले व्यक्ति को अच्छा नहीं समझता है, ( इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवट्ठिए Jain Education International For Private & Personal Use Only 22 www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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