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________________ सूत्रकृतांग सूत्र रखते हैं। अतः इनकी पूर्व तथा उत्तर अवस्था में कोई खास अन्तर नहीं है। क्योंकि गृहस्थ तथा कतिपय श्रमण-माहन आरम्भ-परिग्रह युक्त होने के कारण वस-स्थावर प्राणियों की विघातक प्रवृत्तियाँ करते हैं, इसलिए इनके संसर्ग में रहकर निरवद्यवृत्ति का पालन एवं परिग्रह-त्याग करना बहुत कठिन है। इसीलिए निर्ग्रन्थसाधु इनके साथ नहीं रहते । यद्यपि इन्हें छोड़े बिना निरवद्यवृत्ति का पालन एवं परिग्रह का त्याग दुष्कर है, तथापि निरवद्यवृत्ति के पालनार्थ इनका आश्रय लेना भी छोड़ा नहीं जा सकता है । अत: निर्ग्रन्थमुनि इनका संसर्ग-त्याग करके भी निरवद्यवृत्तिपूर्वक संयम के परिपालनार्थ इनका आश्रय लेते हैं। आशय यह है कि संयम के आधारभूत शरीर की रक्षा के लिए निर्ग्रन्थमुनि इनके द्वारा अपने लिए बनाए हुए आहारादि में से थोड़ा-थोड़ा मधुकरीवृत्ति से लेकर अपना निर्वाह करते हैं। क्योंकि ऐसा किये बिना निरवद्यवृत्ति एवं परिग्रहत्याग का पालन नहीं हो सकता। निर्ग्रन्थभिक्षु इस प्रकार गृहस्थ आदि द्वारा प्रदत्त भिक्षान्न तथा अन्य संयम सुसाधनों से अपनी संयमयात्रा निरवद्यवृत्ति से चलाते हैं; न वे परिग्रह रखते हैं और न ही वे आरम्भ-समारम्भ करते हैं। जो सुसाधु आरम्भ-परिग्रह से मुक्त रहकर कर्म के रहस्य को समझते हैं, वे ही कर्मबन्धनों से रहित होते हैं, कर्मों का अन्त करके मोक्षपद के अधिकारी बनते हैं। निर्ग्रन्थभिक्षुओं के जीवन के ये ही उत्तम सिद्धान्त तीर्थंकरों ने बताये हैं। सारांश चार प्रकार से तीर्थंकरोक्त निर्ग्रन्थभिक्षु एवं गृहस्थ तथा कतिपय श्रमण-माहनों का अन्तर इस सूत्र में समझा दिया है । सारांश यह है कि जो आरम्भ और परिग्रह से लिप्त हो, वह निम्रन्थभिक्षु नहीं हो सकता। वह या तो गृहस्थ होता है, या फिर आरम्भ-परिग्रह में फँसा हुआ वेषधारी तथाकथित श्रमण या माहन होता है। निर्ग्रन्थभिक्षु आरम्भ-परिग्रह में लिपटे हुए इन लोगों के साथ नहीं रहता, सिर्फ संयमनिर्वाहार्थ आहार-पानी या धर्मोपकरणादि साधन लेने के लिए इनका अममत्व वृत्ति से बेलाग होकर आश्रय लेता है। यदि वह इनका आश्रय अपनी प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा, प्रशंसा या कीर्ति आदि अन्य किसी प्रयोजन से लेता है, अथवा इनके प्रति आसक्ति, लगाव या ममत्वबुद्धि रखकर इनका आश्रय लेता है तो वह भी आरम्भपरिग्रह से सर्वथा निर्लिप्त, नि:स्पृह, त्यागी निर्ग्रन्थभिक्षु नहीं रह सकता, यही शास्त्रकार का आशय प्रतीत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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