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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक ६१ (२) गृहस्थ तथा कतिपय श्रमण-माहन भी सारंभ-सपरिग्रह होने से सचित्तअचित्त काम-भोगों के साधनों का ग्रहण करते, कराते और अनुमोदन करते हैं । (३) निर्ग्रन्थमुनि गृहस्थों तथा कतिपय श्रमण-माहनों का संसर्ग तो वजित करते हैं, लेकिन इनके निश्राय से अपने तप-संयम का निर्वाह करते हैं । (४) निर्ग्रन्थमुनि गृहस्थ एवं कतिपय श्रमण-माहनों को सावद्य अनुष्ठानयुक्त जानकर तथाप्रकार के पहले-पीछे के सावद्यकार्यों से रहित होकर संयम में प्रवृत्ति करता है। पुत्र, कलत्र आदि के साथ गृह में रहने वाले गृहस्थ कहलाते हैं।' यह तो जगत् में सर्वविदित है कि गृहस्थ नाना प्रकार के आरम्भ (सावद्य अनुष्ठान) करते हैं, क्योंकि वे ऐसी क्रियाएँ करते हैं, जिनसे हिंसा आदि पाप हो जाते हैं, इसके अतिरिक्त वे धन-धान्य, सोना-चाँदी आदि अचित्त तथा दासी-दास, स्त्री-पुत्र, गाय-बैल, घोड़ाऊँट आदि सचित्त परिग्रह भी रखते हैं। इसी प्रकार कई तथाकथित श्रमण (शाक्यभिक्षु आदि) तथा माहन (गोशालक मतानुयायी आजीवक आदि) भी गृहस्थों की तरह आरम्भ एवं परिग्रह से युक्त होते हैं। इतना ही नहीं, वे भी गृहस्थों की तरह दूसरों से आरम्भ कराते हैं, जो आरम्भ करते हैं, उनका अनुमोदन करते हैं। स्पष्ट है कि जिनेन्द्रमतानुयायी निर्ग्रन्थभिक्षु ऐसा नहीं करते। वे तथाकथित श्रमण और माहन गृहस्थ की तरह सचेतन और अचेतन परिग्रह स्वयं रखते हैं, दूसरों से रखाते हैं और जो रखते हैं, उनका अनुमोदन-समर्थन करते हैं। स्पष्ट है कि जैन निर्ग्रन्थमुनि इस प्रकार के परिग्रह का त्रिकरण-त्रियोग से त्याग करते हैं। ___ अतः जो तथाकथित श्रमण एवं माहन सारम्भ-सपरिग्रह गृहस्थों की सी प्रवृत्तियाँ करते हैं, वे भी यदि सारम्भ एवं सपरिग्रह कहलाएँ इस में कोई अनुचित नहीं। इन लोगों के साथ रहकर कोई भी निर्ग्रन्थमुनि सावद्य-अनुष्ठानरहित तथा सचित्तअचित्त परिग्रह से मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि ये तथाकथित श्रमण तथा माहन नाममात्र के दीक्षाधारी या वेषधारी भिक्षु होते हैं, उनकी पूर्व-अवस्था- गृहस्थावस्था तथा बाद की अवस्था-त्यागी अवस्था दोनों ही लगभग समान होती हैं, वे साधुदीक्षाग्रहण करने से पूर्व जैसे सावद्य अनुष्ठान करते थे और द्विविध परिग्रह रखते थे, वैसे ही दीक्षाग्रहण करने के पश्चात् भी सावद्य अनुष्ठान करते हैं और परिग्रह १. पुत्रकलत्रादिभिः सह गृहे तिष्ठन्तीति गृहस्थाः । गह्णाति धान्यादिकमिति गृहम्, तत्र तिष्ठन्ति गृहस्थाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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