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________________ १० सूत्रकृतांग सूत्र युक्त होते हैं। (अहं खलु अणारंभे अपरिग्गहे) ऐसी स्थिति में आत्मार्थी संयमी मुनि विचार करता है--मैं (आर्हतधर्मानुयायी मुनि) आरम्भ-परिग्रह से रहित हूँ। (जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा एतेसि चेव निस्साए बंभचेरवासं वसिस्सामो) जो गृहस्थ हैं वे आरम्भ-परिग्रह सहित हैं ही कोई-कोई श्रमण (शाक्य भिक्षु आदि) तथा माहन भी आरम्भ-परिग्रह से लिप्त हैं । अत: आरम्भ-परिग्रह से युक्त इनका आश्रय लेकर मैं ब्रह्मचर्यवास (मुनिधर्म) का पालन करूंगा। (कस्स णं तं हेउं ?) आरम्भ और परिग्रह सहित रहने वाले गृहस्थ और श्रमण ब्राह्मणों के निश्राय में ही जब विचरण करना है, तब फिर इनके सम्पर्क का त्याग करने का क्या कारण है ? (जहा पुव्वं तहा अवरं, जहा अवरं तहा पुत्वं) गृहस्थ जैसे पहले आरम्भ और परिग्रह सहित होते हैं, वैसे ही वे पीछे भी होते हैं। कोई-कोई श्रमण-ब्राह्मण भी प्रव्रज्या धारण करने से पूर्व जैसे आरम्भ-परिग्रह-युक्त होते हैं, इसी तरह बाद में भी वे आरम्भ-परिग्रह से लिप्त हो जाते हैं । (अंजू एते अणुवरया अणुवट्ठिया पुणरवि तारिसगा चेव) यह तो प्रत्यक्ष स्पष्ट है कि ये लोग सावध आरम्भ से निवृत्त नहीं है तथा शुद्ध संयम का पालन नहीं करते, अतः ये लोग इस समय भी पूर्ववत् आरम्भ-परिग्रहरत हैं। (जे खलु गारत्था सारंभा सपरिग्गहा, संतेगइया समणा माहणा वि सारंभा सपरिग्गहा दुहओ पावाइं कुव्वंति) आरम्भ-परिग्रह के साथ रहने वाले जो गृहस्थ एवं श्रमण-ब्राह्मण हैं, वे आरम्भ-परिग्रह इन दोनों में रत रहते हुए इन दोनों कार्यों के द्वारा पापकर्म करते रहते हैं । (इति संखाए दोहि वि अंतेहिं अदिस्समाणो इति भिक्खू रोयेज्जा) यह जानकर साधु आरम्भ और परिग्रह इन दोनों से रहित होकर संयम में प्रवृत्ति करे। (से बेमि पाइणं वा ६ जाव एवं से परिणायकम्मे) अतः मैं कहता हूँ कि पूर्व आदि दिशाओं से आया हुआ जो भिक्षु आरम्भ एवं परिग्रह से रहित है वही कर्म के रहस्य को जानता है । (एवं से ववेयकम्मे) और वही कर्मबन्धन से रहित होता है, (एवं से विअंतकाए भवतीतिमक्खायं) तथा वही कर्मों का अन्त (क्षय) करता है, यह श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है । व्याख्या गृहस्थ तथा श्रमण-माहन एवं जैन मुनियों के आचार में अन्तर इस सूत्र में गृहस्थ, कतिपय श्रमण-माहन एवं जैनमुनि के आचार में किनकिन बातों का अन्तर है, यह चार बार विश्लेषणपूर्वक निरूपण किया गया है। वह इस प्रकार है (१) गृहस्थ तथा कतिपय श्रमण-माहन सारम्भ-सपरिग्रह होने के कारण त्रसस्थावर प्राणियों का आरम्भ मन-वचन-काया से करते, कराते व अनुमोदन करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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