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सूत्रकृतांग सूत्र
समर्थ नहीं होते, और न ही वह (अज्ञ मानव) अपने पारिवारिक जनों पर दुःख या रोग आ पड़ने पर उसे मिटाने या बाँटने में समर्थ हो सकता है । इसलिए यह सिद्धान्त निश्चित हुआ कि ज्ञातिजनों का संयोग त्राणरूप या शरणरूप नहीं है । या तो वह ममत्ववान पुरुष ही पहले ज्ञातिजनों के संयोग को छोड़कर चल देता है या फिर वे ज्ञातिजनसंयोग उस मनुष्य को पहले छोड़ देते हैं ।
इसी कारण बुद्धिमान साधक यथार्थ चिन्तन करता है कि 'यह ज्ञातिजनों का संयोग मुझसे सर्वथा भिन्न हैं, मैं भी इनसे सर्वथा भिन्न हूँ। ऐसी स्थिति में ज्ञातिजन संयोगों में मैं जानबूझकर क्यों आसक्ति करूं, क्यों अन्धा होकर मौत के कूप में गिरूँ ? इसलिए मुझे ज्ञातिजनों पर आसक्ति करना कथमपि उचित नहीं है । ये सब पर हैं, स्व (आत्मा) से भिन्न हैं, ये पराये हैं, अतः इनमें आसक्त होना किसी भी तरह श्रेयस्कर नहीं है । वह सर्वथा अशान्ति, आकुलता, चिन्ता, शोक, दुःख एवं भय आदि का ही कारण होती है। जैसे पशु, धन-धान्य आदि सर्वथा बहिरंग हैं, वैसे ही बन्धुबन्धव आदि भी परपदार्थ होने के कारण बहिरंग हैं। अतएव उनमें भी ममत्वबुद्धि रखना भी श्रेयस्कर नहीं है । यों जानकर हम ज्ञातिजन-संयोग का परित्याग कर देंगे।' कहा भी है
कस्य माता, पिता कस्य, कस्य भ्राता सहोदरः ? -इस परिवर्तनशील संसार में कौन किसकी माता है ? कौन किसका पिता या सहोदर भाई है ?
अर्थात् निश्चयदृष्टि से किसी जीव का, दूसरे जीव के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, जबकि व्यवहारदृष्टि से ऐसा कोई जीव इस संसार में नहीं दिखता, जिसके साथ अनेक-अनेक बार सभी प्रकार के सम्बन्ध न हो चुके हों । ऐसी स्थिति में किसे क्या कहा जाय ?
इससे भी आगे बढ़कर वह उत्तम पुरुष चिन्तन करता है-ज्ञाति-संयोग तो फिर भी बाह्य पदार्थ हैं, क्योंकि इनसे भी निकटवर्ती ये शरीर के अंगोपांग आदि हैं, जैसे कि अज्ञ व्यक्ति कहता है-मेरे हाथ हैं, मेरे पैर हैं, मेरी बाहें हैं, मेरी जंघाएँ हैं, मेरा पेट है, मेरा सिर है, मेरा शील है, मेरी आयु है, मेरे बल, कर्ण, नेत्र, घ्राण तथा स्पर्शन यानी सम्पूर्ण शरीर आदि हैं। इन पर अज्ञानी ममत्व रखता है। इस प्रकार अज्ञ जीव अपने शरीर में और शरीर के अंगोपांगों पर ममत्वभाव रखता है । अज्ञों की मनोवृत्ति का सुन्दर चित्र देखिए
अशनं मे वसनं मे, जाया मे बन्धुवर्गो मे ।
इति मे मे कुर्वाणं कालवृको हन्ति पुरुषाजम् ॥ -यह मेरा भोजन है, यह मेरा वस्त्र है, यह मेरी पत्नी है, ये मेरे बन्धुजन हैं।
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