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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक जनों से प्रार्थना करूं कि 'हे भयत्राता ज्ञातिजनो ! मुझे यह रोग या अमुक दुःख उत्पन्न हुआ है, जो कष्टप्रद है, अप्रिय एवं असुखकर है, इसे थोड़ा-थोड़ा आप सब बाँट लें। या इस दुःख में सहभागी बन जाएँ, जिससे सारा का सारा कष्ट या दुःख मुझ अकेले को न भोगना पड़े, दु:ख का बँटवारा हो जाने से वह हल्का हो जाये ।' तो क्या ऐसी प्रार्थना करने पर भी वे (ज्ञातिजन) मेरा उद्धार कर सकेंगे ? मुझे दुःख से उबार सकेंगे, मेरे दुःख का बँटवारा करके वे ग्रहण कर लेंगे ? कदापि नहीं। न कभी ऐसा हुआ है और न होगा। तात्पर्य यह है कि ज्ञातिजन उस दुःख या रोगातंक से मेरी रक्षा नहीं कर सकते और न ही मुझे शरण दे सकते हैं। ये मेरा दुःख बाँट नहीं सकते। ___ इतना ही नहीं, यदि उन ज्ञातिजनों पर कोई दुःख या रोगातंक आ पड़े तो मैं भी उनके दुःखों से उनका रक्षा करने में समर्थ नहीं हूँ। उन भयत्राता ज्ञातिजनों को कोई अनिष्ट, अप्रिय यावत् असुखरूप रोगातंक उत्पन्न हो जाये और मैं चाहूँ कि किसी भी तरह से उन पारिवारिक जनों को उस अनिष्ट, अवांछनीय यावत् असुखरूप रोगातंक से छुड़ा लू, तो मैं भी ऐसा नहीं कर सकता, मैं अपने इस मनोरथ में सफल नहीं हो सकता। सिद्धान्त यह है कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को दुःख से बचाने या उसके दुःख को बाँट लेने में कदापि समर्थ नहीं हो सकता । वास्तव में, एक के दुःख को दूसरा कोई भी बांटकर ले नहीं सकता और न ही दूसरे के द्वारा किये हुए शुभाशुभ कर्म को दूसरा और कोई भोग सकता है। क्योंकि जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही वर्तमान भव या सम्पत्ति का त्याग करता है और अकेला ही नवीन भव या सम्पत्ति को ग्रहण करता है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही कषाय से युक्त होता है, स्वयं ही किसी वस्तु को जानता है, प्रत्येक व्यक्ति का ज्ञान, मननचिन्तन या दुःख-सुख का वेदन अलग-अलग होता है, प्रत्येक व्यक्ति की विद्वत्ता भी अलग-अलग होती है। तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति ने जैसा कर्म किया है, वही व्यक्ति उस कर्म के फलस्वरूप वैसा ही सुख या दुःख भोगता है । दूसरे के द्वारा किये हुए कर्म का फल दूसरा नहीं भोगता । अगर ऐसा हो तो कृतनाश और अकृत-अभ्यागम नामक दोषों का प्रसंग होगा । यानी कर्म का कर्ता तो उसके फलभोग से वंचित रह जायेगा और जिसने कर्म नहीं किया है, उसे उसका फल व्यर्थ ही भोगना पड़ेगा। इस प्रकार कर्म-फलभोग की सारी व्यवस्था ही समाप्त हो जायेगी। __ निष्कर्ष यह है कि अज्ञानी मनुष्य ही ऐसा मान सकता है कि मेरे माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्रादि मेरे लिए सुख के साधनरूप हैं। और वह उनको सुखी करने हेतु विविध कष्ट सहकर अनेक प्रकार से उखाड़-पछाड़ करके धनादि का उपार्जन करता है, परन्तु वह पारिवारिक जन भी उसके रोग को मिटाने या दुःख को बाँट लेने में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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