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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक इस प्रकार 'मे-मे' अर्थात् 'मेरा-मेरा' करने वाले पुरुषरूपी बकरे को कालरूपी भेड़िया आकर खत्म कर देता है । इसी प्रकार मनुष्य अपने अत्यन्त निकटवर्ती जानकर आयु, बल, वर्ण, त्वचा, कान्ति, कान आदि पंचेन्द्रियों को अपने मानकर मूढ़ बनता है, इन्हें सबसे अधिक आनन्द का कारण मानता है, इनका उसे बड़ा ही अभिमान रहता है, लेकिन जब अवस्था ढल जाती है, केश पकने लगते हैं, दाँत सब गिर जाते हैं, आँखों की ज्योति क्षीण हो जाती है, शरीर पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं, कमर झुक जाती है, मनुष्य का यौवन एकदम समाप्त होकर बुढ़ापा आ जाता है, हड्डियों के जोड़ ढीले पड़ जाते हैं, गाल पिचक जाते हैं, मनुष्य का सुगठित शरीर ढीला हो जाता है, शरीर की कान्ति फीकी पड़ जाती है, हाथ-पैर आदि अंग शिथिल हो जाते हैं । मनुष्य बलहीन तथा इन्द्रिय-शक्ति से क्षीण हो जाता है । अन्त में, आयु पूरी होने पर आहारादि से वृद्धिंगत इस शरीर को छोड़कर अकेला ही परलोक का मेहमान बन जाता है । वहाँ वह अपने शुभाशुभकर्म का फल अकेला भोगता है । उस समय उसकी सम्पत्ति, परिवार तथा शरीर आदि कोई भी साथ नहीं होते । ८७ सारांश 1 बुद्धिमान पुरुष को धन-धान्य, मकान और खेत आदि सम्पत्ति तथा माता-पिता, पुत्र आदि पारिवारिक जनों के प्रति ममत्व का त्याग करके आत्मकल्याण का साधन करना चाहिए। मनुष्य रात-दिन जिस सम्पत्ति के लिए नाना प्रकार के कष्ट सहन करता रहता है, वह उसके परलोक में काम नहीं आती है। इतना ही नहीं, किन्तु इस लोक में भी वह स्थिर नहीं रहती । बहुत से लोग धनसंचय करके भी फिर दरिद्र हो जाते हैं, उनकी सम्पत्ति उन्हें छोड़कर चली जाती है । कभी ऐसा भी होता है कि सम्पत्ति का उपार्जन करने के पश्चात् उसका उपभोग किये बिना ही मनुष्य की मृत्य हो जाती है । ऐसी स्थिति में उस पुरुष को तो सम्पत्ति उपार्जन करने का कट ही पल्ले पड़ता है, सुख नहीं मिलता । सुख तो दूसरे प्राप्त करते हैं । अतः ऐसी सम्पत्ति के लोभ में पड़कर अपने जीवन को कल्याण से वंचित करना विवेकी पुरुष का कर्तव्य नहीं है । जिस प्रकार सम्पत्ति चंचल है, उसी प्रकार परिवारवर्ग का सम्बन्ध भी अस्थिर है । परिवार के साथ भी वियोग अवश्यम्भावी है । कभी तो मनुष्य परिवार को शोकाकुल बनाता हुआ स्वयं पहले मर जाता है और कभी परिवार वाले पहले मरकर उसे शोकसागर में निमग्न कर देते हैं । अति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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