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________________ ग्रन्थ : चौदहवाँ अध्ययन ६४६ समाधि का अथवा श्रोता के चित्तस्थैर्यरूप समाधि का भली-भाँति प्रतिपादन करना जाता है। इसी बात को शास्त्रकार दूसरे पहलू से कहते हैं कि साधु सर्वज्ञोक्त आगमों की व्याख्या करते समय अपसिद्धान्त की प्ररूपणा करके सर्वज्ञोक्त आगम को दूषित या वदनाम न करे। जो सिद्धान्त शास्त्र से अविरुद्ध है, पवित्र है तथा सर्वजन - विख्यात है, उसे अस्पष्ट भाषण करके या संदिग्ध शब्दों का प्रयोग करके छिपाए नहीं । अथवा 'णो पच्छन्नभासी' का अर्थ यह भी होता है कि जो सिद्धान्त या बात प्रच्छन्न (गुप्त) रखने योग्य है, जिसे अपरिपक्व या अश्रद्धालु को बताने से उसके दुरुपयोग या बदनाम होने की सम्भावना है, उसे किसी अपरिपक्व अश्रद्धालु या अजिज्ञासु या दोषदर्शी को न बताए, क्योंकि ऐसे व्यक्ति को सिद्धान्त का रहस्य बताने से वह दूषित हो जाता है । इसीलिए कहा है अप्रशान्तमतौ शास्त्रसद्भावप्रतिपादनम् । दोषायाभिनवोदीर्णे शमनीयमिव ज्वरे ॥ अर्थात् - जिसकी बुद्धि शान्त नहीं है, चंचल है, ऐसे व्यक्ति को शास्त्र की उत्तम बातें कहना, दोष के लिए ही होता है, जैसे नये-नये बुखार वाले रोगी को तुरंत बुखार मिटाने के लिए दवा देना हानिकारक होता है । साधु जैसे प्राणिमात्र का रक्षक होता है, वैसे ही अपनी आत्मा का भी पापों और बुराइयों से रक्षक होता है, वह षड्जीव निकाय का रक्षक होने के नाते प्राणियों का माता-पिता है, उसकी यह जिम्मेदारी है कि वह कोई ऐसा कार्य मन-वचन-काया से न करे, जिससे इन प्राणियों को हानि पहुँचे, उनके प्राणों का वियोग हो, इसीलिए उपदेशक साधु अपनी कल्पनानुसार सूत्र या उसके अर्थ को न बदले । क्योंकि अर्थ बदलने से या सूत्र बदलने से एक ही नहीं, हजारों व्यक्ति विपरीत मार्ग पर चलने लगेंगे, उनकी बहुत बड़ी हानि होगी, स्वयं भी ऐसा करके संसारवृद्धि कर लेगा । कदाचित् अर्थ बदलने से सावद्य - प्ररूपण के कारण अनेक प्राणियों की हिंसा होने की संभावना हो । दूसरी बात यह है कि सूत्र अथवा अर्थ के बदलने से जिस आचार्य या गुरु से उस सूत्र या अर्थ की शिक्षा ली है, उनके प्रति उसकी वफादारी या भक्ति खत्म हो जाएगी । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं - 'सत्थारभत्ती' "सुयं च सम्म पडिवाययति । अर्थात् सत्य की आराधना या सम्यक्त्व की साधना की अपेक्षा जैसा या जो अर्थ उसने गुरु रखता हुआ साधु वी अर्थ दूसरे के समक्ष कहे, ( प्रशास्ता ) के मुख से सुना है । वह दूसरे के समक्ष शास्त्र का अध्ययन करानेवाले गुरु या आचार्य में में रखते हुए यह सोच ले कि 'मेरे द्वारा इस बात को कहने से आगम में कोई बाधा तो नहीं आती।' पूर्णतया सोच-विचार कर ही कोई बात कहे । ऐसा नहीं शास्त्र की व्याख्या करने से पूर्व अपनी जो भक्ति है, उसे ध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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