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सूत्रकृतांग सूत्र
सोचे कि अब मुझे गुरु से क्या लेना-देना है ? अब तो मैं स्वतन्त्र हूँ, अपने आप में सुखी हूँ, फिर मैं विद्वान् हूँ, इसलिए शास्त्र का जो भी अर्थ कर दूँ, जिस किसी तरह से समझा दूँ तो क्या हर्ज है ? पूर्वोक्त दोषों को ध्यान में रखते हुए साधु शास्त्र की यथाश्रुत सम्यक व्याख्या करे ।
सिद्ध बात का जहाँ
अब शास्त्रकार इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि जो साधक शास्त्र के सूत्रपाठ का शुद्ध उच्चारण, अर्थ या व्याख्यान करता है, शास्त्रोक्त तप करता है, तथा श्रुतचारित्ररूप धर्म को यथायोग्य स्थान में फिट कर देता है । अर्थात् उत्सर्ग-अपवाद, आज्ञार्थक, हेत्वर्थक, स्व-परसिद्धान्त से जो योग्य या प्रसंग प्राप्त है, वहीं शुद्ध धर्म की दृष्टि से स्थापित करता है, वही साधक आदेयवाक्य, शास्त्रार्थकुशल, बिना बिचारे कार्य न करने वाला है । और ऐसा साधक - जो पूर्वोक्त उत्तम गुणों से सम्पन्न है, आगम प्रतिपादन तथा उत्तम अनुष्ठानकर्ता है, वही सर्वज्ञोक्त सम्यग्ज्ञानादिरूप भावसमाधि की व्याख्या कर सकता है । 'त्ति बेमि' शब्द का अर्थ पूर्ववत् है ।
सूत्रकृतांगसूत्र का चौदहवाँ ग्रन्थ अध्ययन अमरसुखबोधिनी व्याख्या सहित
सम्पूर्ण |
॥ ग्रन्थ नामक चौदहवाँ अध्ययन समाप्त ॥
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