SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 993
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृतांग सूत्र और ग्रहणशक्ति देखकर वक्ता को तदनुसार संक्षेप या विस्तार में उस शब्द के स्पष्ट पृथक्-पृथक्, व पर्यायवाची शब्द बताकर उनका भावार्थ और तात्पर्य समझाकर श्रोता को सन्तुष्ट करना चाहिए। मूल बात तो अपने वक्तव्य या मन्तव्य को श्रोता के गले उतारने की है । अतः साधु श्रोता की भूमिका देखकर किसी गहन विषय को स्पष्ट करने के लिए विस्तृत शैली अपनाए तो कोई हर्ज नहीं है । गुरुकुलस्थ साधु आचार्य से पदार्थ को भली-भाँति सुन-समझकर उसका ठीक निश्चय करके वस्तुतत्त्व को यथार्थ रूप से जान लेता है । ऐसा सम्यगर्थदर्शी साधक सर्वज्ञप्रणीत आगम या सिद्धान्त से विरुद्ध या पूर्वापर विरुद्ध या असंगत वचन न बोले, अपितु सिद्धान्तसंगत शुद्ध वचन बोले। इस प्रकार का उच्चकोटि का धर्मोपदेश देकर तत्त्वदर्शी मुनि अपने भाषण के बदले किसी प्रकार के वस्त्रादि लाभ, सत्कार, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा या प्रशंसा की आकांक्षा न रखे, निःस्पृहभाव से निर्दोष भाषण करे । ६४८ साधु को सिद्धान्तानुरूप आगमानुकूल वचन या भाषण करने में सिद्धहस्त बनने के लिए पहले क्या करना चाहिए ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं'अहाबुइयाई सुसिक्ख एज्जया जइज्जा । अर्थात् गुरुकुल में रहकर साधु तीर्थंकर और गणधर आदि ने जो वचन कहे हैं, जिन सिद्धान्तों का निरूपण किया है, मोक्षप्राप्ति के लिए जिन आचार-विचारों का प्रतिपादन किया है; उनका जमकर अध्ययन करे, सीखे, तदनुसार आचरण में लाए, उन आचार-विचारों का भलीभाँति अहर्निश अभ्यास करे, अर्थात् ग्रहण - शिक्षा के द्वारा सर्वज्ञोक्त आगमवाणी को अच्छी तरह ग्रहण करे और आसेवना - शिक्षा के द्वारा उद्युक्तविहारी होकर उसका सेवन करे । दूसरे लोगों के सामने भी वह उसी तरह प्रतिपादन करने का प्रयत्न करे । यद्यपि साधु ग्रहण-शिक्षा, आसेवना शिक्षा या देशना में प्रयत्न करे, किन्तु जो जिस कर्तव्य का काल है, अध्ययन काल है या भिक्षाकाल आदि है, उसका उल्लंघन करके देशना आदि देने के लिए न बोले । अथवा साधु अध्ययन, उपदेश, भाषण या अन्य कर्तव्यों की मर्यादा का उल्लंघन न करे । साधु यथाप्रसंग एक के बाद दूसरी सभी क्रियाएँ यथासमय करे, किसी भी क्रिया में बाधा न डाले । जो साधु कालानुसार आचरण करता है, वह दृष्टिमान पदार्थ के यथार्थ स्वरूप में श्रद्धा रखने वाला है, वह साधु किसी भय या प्रलोभन के वश होकर अपनी सम्यग्दृष्टि को दूषित न करे । आशय यह है कि साधु श्रोता की योग्यता देखकर तदनुसार धर्म का उपदेश दे ताकि वह अपसिद्धान्त को त्यागकर सम्यकधर्म में दृढ़ हो जाय, किन्तु इसके विपरीत वह इस प्रकार का उपदेश न दे, जिससे श्रोता के मन में शंका पैदा हो और उसके सम्यक्त्व में आँच आए । वस्तुतः जो इस प्रकार का उपदेश करने में निष्णात है, सक्षम है, वही सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र तपश्चरणरूप सर्वज्ञोक्त भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy