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ग्रन्थ : चौदहवाँ अध्ययन
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साधु दो ही भाषाओं का प्रयोग करे--पहली सत्यभाषा और अन्तिम-असत्यामृषा (यानी जो सत्य भी नहीं, असत्य भी नहीं)। महान् धर्मधुरंधर साधुओं के साथ विचरण करने के कारण साधु के मन में यह विचार नहीं आना चाहिए कि मैं धनिकों या सत्ताधीशों का गुरु हूँ, इन्हीं को उपदेश द, प्रत्युत समभावी साधु धनिक हो या दरिद्र, सबको समानभाव से धर्मोपदेश दे ।।
दो भाषाओं का आश्रय लेकर शास्त्र का अर्थ या व्याख्या समझाते हुए साध को कई प्रकार के लोगों से वास्ता पड़ता है, जो जिज्ञासु, श्रद्धालु एवं सूझ-बूझ वाले हैं, वे तो उसकी बात को यथार्थ रूप से समझ लेते हैं, किन्तु जो मूढ़ हैं, दुर्मति हैं, या मंदबुद्धि और अजिज्ञासु हैं, वे उसके तात्पर्य को ठीक रूप में समझ नहीं पाते, बल्कि कभी-कभी वे उसे विपरीत रूप में लेते हैं, उस समय विज्ञ साधु का कर्तव्य है कि वह उस विपरीत समझने वाले व्यक्ति को उचित हेतु, उदाहरण और सुयुक्तियों द्वारा समझाने का भरसक प्रयत्न करे। किन्तु इसके विपरीत साधु उस पर खीझकर--'तु मूर्ख है । तू क्या समझेगा ? तेरे बस की बात नहीं है। तेरी अक्ल तो कहीं दूसरी जगह चरने गई है ! धिक्कार है तुझे ! लाख समझाने पर भी तू न समझा, गवार कहीं का ! भाग जा, यहाँ से, क्यों मेरा दिमाग चाटता है ? इत्यादि शब्द कहकर उसे झिड़के नहीं। यदि प्रश्नकर्ता की भाषा अशुद्ध हो, प्रश्न पूछने का ढंग ठीक न हो, तो भी साधु उसे डाँटे-फटकारे नहीं, उसकी अशुद्ध वाक्यावली की छीछालेदर न करे, न ही उसकी मखौल उड़ाए। उसका अपमान न करे | तथा जो बात संक्षेप में कही जा सकती है, उसे व्यर्थ ही शब्दाडम्बर करके लम्बी न करे, क्योंकि एक तो अधिक लंबी बात को सुनते-सुनते श्रोता उकता जाता है, दूसरे, लम्बी बात कहने में वक्ता और श्रोता दोनों का समय भी अधिक जाता है। व्यर्थ ही समय खोने से क्या फायदा ? जैसे कि एक अनुभवी साधक ने कहा है
सो अत्थो वत्तवो जो भण्णइ अक्खरेहि थोवेहिं ।
जो पुण थोवो बहु अक्खरेहिं सो होइ निस्सारो॥ अर्थात् --- साधु को वही बात कहनी चाहिए, जो थोड़े शब्दों में कही जा सके। थोड़ी बात बहुत शब्दों में कही जाती है तो वह निःसार हो जाती है।
सूत्रशैली -- संक्षिप्त शैली में ही साधु का वश चले तो अपनी बात कहनी चाहिए, जिसका अर्थ गम्भीर हो, महान् अर्थ हो। वही प्रशस्त शैली मानी जाती है।
___ परन्तु जो बात अत्यन्त कठिन और दुरूह हो, जिसे श्रोतागण थोड़े-से शब्दों में कहने से पूरी तरह समझ न पाते हों, उसे साधु उत्तम हेतु, युक्तियाँ, दृष्टान्त आदि देकर विस्तृत रूप से समझाए । किसी गहन बात को थोड़े से तथा क्लिष्ट शब्दों में समझाकर छुट्टी पा लेने में वक्ता की कृतार्थता नहीं है। श्रोता की योग्यता, रुचि
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