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________________ सूत्रकृताग सूत्र होते हैं । गो-वाणी, त्र---रक्षा, जो वाणी की रक्षा (संयम) करता है, उसे गोत्र कहते हैं, वह है --- मौन या वाक्संयम । मारण, मोहन, उच्चाटन तथा अन्य सावद्यकार्यों के लिए मंत्र-प्रयोग जीवों की विराधना का कारण है, इसलिए संयम का घातक है अथवा प्राणियों के जीवन को गोत्र कहते हैं । उस जीवन को साधु शासक, राज-नेता आदि के साथ गुप्त-मन्त्रणा (मन्त्र) करके या गुप्त रूप से उपदेश देकर नष्ट न कराए। ऐसी मन्त्रणा प्राणघातक है ; इसलिए सर्वथा वर्जित है । प्रजा कहते हैं प्राणियों को या जनता को । उनके बीच में बैठकर धर्मोपदेश देने वाला साधु उनसे लाभ, पूजा, सत्कार आदि की इच्छा न करे । तथा असाधुओं का जो पिण्डदान, तपंण या श्राद्ध आदि धर्म है, उसका उपदेश साधु न करे । जिस उपदेश से सम्यक्त्व की हानि होती हो, व्रत दूषित होता हो, वैसे किसी भी लौकिक धर्म या सावध कर्म आदि का उपदेश साधु न दे। अथवा असाधुओं (यानी दुर्जनों) के गुण्डागर्दी, व्यभिचार, अत्याचार आदि कार्यों की सराहना न करे । साधु कुप्रावचनिकों की हँसी न उड़ाए, न आक्षेपकारक वचन कहे, न किसी के साथ कलह करा देने वाली हँसीमजाक करे, न हास्योत्पादक वचन कहे या चेष्टा करे । हँसी में भी पापबन्ध के कारणरूप प्रवृत्ति की प्रेरणा न करे। साधु राग-द्वेषरहित होने से ओजस्वी होता है, अथवा बाह्य-आभ्यन्तर ग्रन्थत्यागी साधु सत्य होने पर भी जो बात दूसरों के चित्त को दुःखित करने वाली हो, कर्कश हो या अनुष्ठान करने में कठोर-दुरनुप्रेय हो, उसे न कहे। अपने पूजा-सत्कार आदि के लाभ की डींग न हांके, न बढ़चढ़कर अपनी प्रशंसा करे । बहुत ही सावधानी के साथ वाणी-प्रयोग करे । साधु धर्म की व्याख्या करते समय निःशंक हो, अर्थ के बारे में निश्चित हो, तो भी संभल-संभल कर शंकित-सा बोले, बेधड़क होकर या बिना विचारे अंट-संट न बोले, यह न सोचे कि मुझे इस विषय पर सोचने की क्या आवश्यकता है ? मैंने पचासों दफा इस सूत्र की व्याख्या कर दी है, जो बात अत्यन्त स्पष्ट है, उसमें शंका को स्थान ही कहाँ ? यह सोचकर उद्धततापूर्वक न बोले । यह सोचकर शंकित-सा होकर कि 'मैं सर्वज्ञ नहीं हूँ, कहीं भूल ही हो सकती है,' नम्रतापूर्वक शास्त्र व्याख्या करे अथवा साधु ऐसी बात न कहे, जिससे श्रोता को शंका उत्पन्न हो। वह पदार्थों का अलग-अलग विश्लेषण करके विभज्यवादपूर्वक अथवा विभिन्न अपेक्षाओं से पृथक् पृथक् अर्थ करके स्याद्वाद की दृष्टि से व्याख्या करे। अनेकान्तवाद लोकव्यवहार से मिला-जुला होने के कारण सर्वव्यापी है, अनुभवसिद्ध है, उसमें साधु कहीं धोखा नहीं खा सकता। इसलिए उसी का आश्रय लेकर साधु बोले । जैसे द्रव्याथिकनय की अपेक्षा जो पदार्थ नित्य है, वही पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से अनित्य है। स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से जो वस्तु सत् है, वही परद्रव्यादि की अपेक्षा से असत् है। किसी के पूछने पर या न पूछने पर अथवा धर्मकथा के प्रसंग में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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