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ग्रन्थ : चौदहवाँ अध्ययन
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आयरियसयासा व धारिएण अत्थेण झरियमूणिएणं ।
तो संघमज्झयारे ववहरिउं जे सूहं होति ।।
अर्थात्--आचार्यश्री से भलीभाँति ग्रहण किये हुए पदार्थ को सुनिश्चित किया हुआ एवं याद रखने में निपुण विज्ञ साधक संघ में (संघ के समक्ष) सुखपूर्वक पदार्थ की व्याख्या कर सकता है ।
परन्तु ऐसा परमविज्ञ गुरु के गन्निध्य में रहकर अभ्यस्त साधक भी कुछ बातों में सावधान रहे, यह शास्त्रकार कहते हैं--(१) प्रश्न का उत्तरदाता साधु शास्त्र के अर्थ को न छिपाए, (२) अपसिद्धान्त का सहारा लेकर शास्त्र की व्याख्या न करे, (३) शास्त्रज्ञ आदि होने का अभिमान न करे, (४) अपने गुणों का भी प्रकाशन न करे, (५) कोई श्रोता न समझे तो उसकी मजाक न करे, (६) जो धर्मोपदेश को श्रद्धापूर्वक सुन ले, उसे आशीर्वाद प्रदान न करे ।
_प्रश्न का उत्तरदाता साधु चाहे कुत्रिकापण की तरह तीनों लोकों के एकत्रित पदार्थसमूह की तरह सर्ववेत्ता हो, या रत्नमंजूषा के समान समस्त ज्ञेय पदार्थों का ज्ञानाश्रय हो, अथवा चौदह पूर्वधारियों में से एक हो तथा आचार्य से शिक्षा पाकर प्रतिभासम्पन्न एवं पदार्थज्ञान में पारंगत हो, ऐसा उत्कृष्ट साधक किसी कारणवश श्रोता पर कुपित हो जाय, अथवा श्रोता पर झुंझला उठे तो भी वह सूत्रार्थ को छिपाए नहीं, अर्थात् वह सूत्र की अन्य व्याख्या न करे, अथवा धर्मकथा करता हुआ साधु वस्तुतत्त्व को न छिपाए, अथवा वह अपने गुणों की उत्कृष्टता बताने की दृष्टि से दूसरों के गुणों को न छिपाए, दूसरों के गुणों को या शास्त्र के आशय को तोड़मरोड़ कर विकृत या दूषित न करे । अथवा आचार्य के नाम तथा उपकार को छिपाए नहीं, न उन्हें बदनाम करे । अपसिद्धान्त का आश्रय लेकर शास्त्र की विपरीत व्याख्या न करे । ऐसा गर्व भी न करे कि मैं समस्त शास्त्रों का वेत्ता हूँ, मेरे समान समस्त संशयों का निवारक कोई नहीं है। मेरे समान हेतु और युक्तियों द्वारा पदार्थ का व्याख्याता कोई नहीं है। इसी प्रकार वह अपने आपको तपस्वी, बहुश्रुत, महान् गुणी आदि के रूप में प्रकाशित न करे । क्योंकि इस प्रकार गर्व करने या स्वप्रशंसा करने से मनुष्य का पुण्यक्षय हो जाता है। इसलिए परिपक्व साधक को बहुत ही नम्र, अहंकार शून्य, एवं प्रशंसा, प्रसिद्धि, नामना, कामना से दूर रहना चाहिए। कोई श्रोता मंदबुद्धि के कारण न समझे तो उसकी मजाक न करे, ताने न मारे, न आक्षेप करे । इसी प्रकार खुश होकर 'जीते रहो, दीर्घायु, पुत्रवान या धनवान् हो', इत्यादि आशीर्वचन भी न कहे, क्योंकि कदाचित् आशीर्वचन से उलटा हो जाए तो साधु असत्यवादी ठहरेगा, लोकश्रद्धा समाप्त हो जाएगी। प्राणियों की विराधना की आशंका से आशीर्वाद देना पापयुक्त कर्म है, जिसका साधु के त्याग होता है। इसी प्रकार मंत्र-प्रयोग करके साधु वाणीसंयम को नि:सार न बनाए । गोत्र के दो अर्थ
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