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अनुगच्छन् वितथं विजानीयात्, तथा तथा साधुकर्कशेन न कथयेद् भाषां विहिंस्यान् निरुद्धकं वाऽपि न दीर्घयेत् समालपेत् प्रतिपूर्ण भाषी, निशम्य सम्यगर्थदर्शी
सूत्रकृतांग सूत्र
॥२४॥
आज्ञाशुद्धं वचनमभियु जीत, अभिसन्धयेत् पापविवेकं भिक्षः यथोक्तानि सुशिक्षेत यतेत नातिवेलं वदेत्
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स दृष्टिमान् दृष्टि न लूपयेत् स जानाति भाषितुं तं समाविम् ||२५|| अलूषको नो प्रच्छन्नभाषी, नो सूत्रमर्थं च कुर्यात् त्रायी शास्तृभक्त्याज्नु विचिन्त्यवादं श्रुतं च सम्यक् प्रतिपादयेत् स शुद्धसूत्र उपधानवांश्च, धर्मञ्च यो विन्दति तत्र तत्र आदेयवाक्यः कुशलो व्यक्तः सोऽर्हति भाषितु तं समाधिम् इति ब्रवीमि ॥
॥२७॥
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॥२३॥
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अन्वयार्थ
( धम्मं च संखाइ वियागरंति) गुरुकुलनिवासी साधु सद्बुद्धि से स्वयं श्रुतचारित्ररूप धर्म को जानकर दूसरे को उपदेश करते हैं (ते बुद्धा हु अंतकरा भवंति ) वे तीनों काल के ज्ञाता होकर समस्त संचित कर्मों का अन्त करने वाले होते हैं । (दोह वि मोयणाए ते पारगा) वे यथार्थ धर्मोपदेष्टा साधक अपने और दूसरों को कर्मपाश से छुड़ाकर संसारसमुद्र के पारगामी हो जाते हैं । (संसोधियं पण्हमुदाहरति ) ऐसे साधु प्रश्न का उत्तर पूर्वापर अविरुद्ध (सम्यक् प्रकार से शोधित) देते हैं || १८ || ( णो छादये) साधु प्रश्नों का उत्तर देते समय शास्त्र के वास्तविक अर्थ को न छिपाए, (णो वियलूसएज्जा) तथा अपसिद्धान्त के द्वारा शास्त्र की व्याख्या न करे ; अथवा अपने आचार्य या दूसरों को दूषित (बदनाम) न करे, ( माणं ण सेवज्जा) तथा ही शास्त्र का ज्ञाता हूँ, इस प्रकार से अभिमान न करे, ( पगासणं च) और न ही मैं बड़ा विद्वान् हूँ, तपस्वी हूँ, चमत्कारी हूँ, इस प्रकार से अपने आपको प्रकाशित करे । ( पन्ने ण वावि परिहासं कुज्जा) प्राज्ञ साधक श्रोता की हँसी न करे, (ण याssसियावाय वियागरेज्जा) साधु किसी को आशीर्वाद न दे ||१६||
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॥ २६ ॥
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(भूताभिसकाइ दुगु छमाणे) साधु प्राणियों के विनाश की आशंका से, तथा पाप से घृणा करता हुआ किसी को आशीर्वाद न दे, (संतपदेण गोयं णणिव्वहे ) तथा मंत्र आदि पदों द्वारा साधु अपने गोत्र - वाणी के संयम को निःसार न बनाए । ( मणुए पयासू ण किचि मिच्छे ) मनस्वी साधक प्रजाओं - मनुष्यों, देवों आदि जीवों से किसी भी वस्तु की आकांक्षा न करे, ( असाहु धम्माणि न संवएज्जा ) एवं वह असाधुओं के धर्म का उपदेश न करे ||२०||
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( हापि जो संघइ ) भिक्षाजीवी साधु हँसी-मजाक न करे, या ठहाके मारकर न हँसे अथवा विदूषक की तरह कोई शरीरादि की चेष्टा न करें, जिससे लोगों को हँसी छूटे, (पावधम्मे) मन-वचन काया से कोई भी पापमय प्रवृत्ति न करे, (ओए
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