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________________ ग्रन्थ : चौदहवाँ अध्ययन ४१ तहीए फरसे दियाणे) राग-द्वे परहित साधु जो कठोर सत्यवचन दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाला हो, उसे भी न कहे ( अणाविले वा अक्साइ भिक्खू ) तथा साधु सदा लोभादि एवं कपायों से रहित होकर रहे ॥ २१ ॥ (असंकित भाव भिक्खू ) सूत्र और अर्थ के विषय में शंकारहित होने पर भी साधु (संकेज्ज) मैं सर्वज्ञ नहीं हूँ, इसलिए कहीं भूल न कर बैठूं इस प्रकार सदा सशंक रहे, निःशंक होकर जो मन में आए, वह बेधड़क होकर न बोले, (विभज्जवायं च विद्यागरेज्जा) तथा विभज्यवाद - सापेक्षवाद - स्याद्वाद युक्त वचन बोले । ( धम्मसमुट्ठितेहि भासादुयं ) सम्यक्रूप में धर्माचरण में उत्थित उद्यत साधुओं के साथ विचरण करता हुआ साधु सत्यभाषा तथा सत्यामृपा भाषा ( जो असत्य नहीं तथा मिथ्या नहीं है), ऐसी दो भाषाएँ बोले । ( समया सुपन्ने विद्यागरेज्जा) उत्तम बुद्धिसम्पन्न साधु धनवान हो या दरिद्र दोनों को समभाव से धर्म का उपदेश दे ||२२|| (अणुच्छमाणे) पूर्वोक्त दो भाषाओं के माध्यम से प्रवचन करते हुए साधु के कवन को कोई-कोई ठीक समझ लेते हैं, (वितह विजाणे) और कोई मंदबुद्धि विपरीत या मिथ्या समझते हैं, ( तहा तहा साहु अकक्कसेणं) जो विपरीत समझते हैं, उन्हें साधु कोमल ( अकर्कश ) शब्दों में हेतु - दृष्टान्त-युक्ति द्वारा जैसे-तैसे समझाने की चेष्टा करे । (ण कत्थइ ) जो यथार्थ नहीं समझता है, उसे भ्रूभंग आदि अनादर सूचक चेष्टाओं से कहकर उसके मन को दुःखित न करें, ( भासं विहिंसइज्जा ) साधु प्रश्न करने वाले पर खीझकर या उसकी भाषा की निन्दा करके उसे व्यथित न करे, (निरुद्धगं वावि न दीहइज्जा) छोटी-सी बात को शब्दाडम्बर करके लंबी-चौड़ी न करे ॥२३॥ ( प डिपुन्नभासी समालवेज्जा ) जो बात संक्षेप में न समझाई जा सके, उसे साधु विस्तृत रूप से कहकर समझाए । ( निसामिया समिया अट्ठदंसी ) ) गुरु से सुन कर अच्छी तरह पदार्थ ( बात ) को जानने वाला साधु ( आणाइ सुद्धां वयणं भिउंजे) वीतराग- आज्ञा ( तीर्थंकरभाषित शास्त्र के विधान ) शुद्ध - अनुकूल वचनों का प्रयोग करे । (भिक्खू पावविवेक अभिसंध) साधु पाप का विवेक रखकर निर्दोष वाक्यों का प्रयोग करे ||२४| ( अहाबुइया सुसिक्ख एज्जा ) सर्वज्ञ अर्हत्प्रतिपादित शास्त्रों का अच्छी तरह अध्ययन करे, गुरु से शास्त्रों की सुशिक्षा ले, ( जइज्जया) और सदैव उसमें प्रयत्न करे | ( णाइवे एज्जा) मर्यादा का उल्लंघन करके अधिक न बोले । ( से दिट्ठिमं दिट्ठि ण लूस एज्जा) वह सम्यग्दृष्टिसम्पन्न साधक अपने सम्यग्दर्शन को दूषित न करे, ( से तं समाधि भासिउं जाणइ ) ऐसा साधक सर्वज्ञोक्त सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्रतपश्चरणरूप भाव समाधि को कहना जानता है ||२५|| (अलूस) साधु आगम के अर्थ को दूषित न करे, ( णो पच्छन्नभासी ) तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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