________________
१३४
सूत्रकृतांग सूत्र बुद्ध होता है, वह गुरुकुल में रहने से गुरुकृपा से शास्त्रज्ञान में पारंगत होकर एक दिन धर्मादि तत्त्वों का स्पष्ट ज्ञाता और विशेषज्ञ बन जाता है । उसके मन की शंका की सब गाँठे खुल जाती हैं।
मूल पाठ उड्ढे अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावरा जे य पाणा । सया जए तेसु परिव्वएज्जा, मणप्पओसं अविकंम्पमाणे ॥१४॥
संस्कृत छाया ऊर्ध्वमस्तिर्यग्दिशासु, त्रसाश्च ये स्थावरा ये च प्राणा: । सदा यतस्तेष परिव्रजेत्, मनाक प्रदोषमविकम्पमानः ॥१४॥
__ अन्वयार्थ (उड़ढं अहेयं तिरियं दिसासु) ऊँची, नीची और तिरछी दिशाओं में (तसा य जे थावरा जे य पाणा) जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, (तेसु सया जए परिवएज्जा) उनमें सदा यत्नपूर्वक (सावधानीपूर्वक) रहता हुआ संयम में प्रगति करे। (मणप्पओसं अविकंपमाण) तथा उन पर जरा-सा भी द्वेष न करता हुआ संयम में निश्चल रहे।
भावार्थ ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिरछी दिशाओं में जो भी त्रस या स्थावर जीव जहाँ हैं, उनकी हिंसा जिस प्रकार से न हो, उस प्रकार का यत्न करता हुआ साधु संयम में पराक्रम करे, तथा उन प्राणियों पर लेशमात्र भी द्वष न रखता हुआ अपने संयम में मजबूत रहे।
व्याख्या निर्ग्रन्थ साधु समस्त प्राणियों की हिंसा आदि ग्रन्थों से मुक्त रहे
इस गाथा में शास्त्रकार गरुकुलनिवास के कारण जिन-वचनज्ञाता एवं मूलउत्तर-गुणों का विशेषज्ञ हो जाने वाले साधु को प्राणातिपात आदि समस्त मूलगुण बाधक ग्रन्थों से मुक्त रहने की प्रेरणा देते हैं ।
सर्वप्रथम शास्त्रकार का सकेत है- दिशा-विदिशाओं में रहने वाले जीवों की हिंसा से निवृत्ति का । ऐसा कहकर क्षेत्र प्राणातिपात से विरत होने की प्रेरणा दी है । फिर त्रस और स्थावर (जिनके विषय में पहले परिचय दिया जा चुका है) प्राणियों का प्राणातिपात निषेध करके द्रव्य-प्राणातिपात निवृत्ति सचित की है। ये सब जीव प्राणी इसलिए कहलाते हैं कि ये दश प्राणों को धारण करते हैं। इन समस्त प्राणियों की सदा-सर्वदा (सब काल में) यतनापूर्वक रक्षा करने का उपदेश देकर शास्त्रकार ने काल-प्राणातिपात से विरति द्योतित की है । इसके पश्चात् भाव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org