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ग्रन्थ : चौदहवाँ अध्ययन .
६३३ प्रकाश फैलते ही मार्ग को स्पष्टरूप से जान लेता है। इसी तरह सुत्र और अर्थ को न जानने वाला, धर्म में अनिपुण----अपरिपक्व साधक धर्म के स्वरूप को नहीं जान पाता, परन्तु जिन-वचनों के अध्ययन-अनुशीलन से वह धर्मतत्त्व का विद्वान ---विशेषज्ञ बनकर इस प्रकार धर्म को स्पष्ट जान लेता है, जिस प्रकार सूर्योदय होने पर व्यक्ति आँख के द्वारा घट-पट आदि पदार्थों को जान-देख लेता है ।।१२-१३।।
व्याख्या
धर्मतत्त्व में कब अनिपुण, कब निपुण ? १२वीं और १६वीं माथाओं में शास्त्रकार ने धर्मतत्त्व में अनिपुण, नवदीक्षित, अपरिपक्व साधक कब और कैसे निपुण हो जाता है ? इसे सूर्योदय का दृष्टान्त देकर समझाया है।
__ एक घोर जंगल है, एक व्यक्ति उसका च पाचप्पा अच्छी तरह जानता है, उससे जंगल का कोई भी कोना अपरिचित नहीं है, वह कई बार इस जंगल में भटके हुए लोगों को रास्ता बताता है। किन्तु काले-कजरारे जल से भरे बादलों से ढकी हुई घोर अंधेरी रात्रि छाई हुई हो, जिसमें हाथ को भी हाथ न दिखता हो, क्या ऐसी घोर अंधेरी रात्रि में भी वह वनमार्गों से सुपरिचित व्यक्ति मार्ग जान-देख सकता है ? कदापि नहीं। किन्तु जब पौ फट जाती है, काले अंधेरे को चीरता हुआ सूर्य उदय हो जाता है, दिशाएं स्पष्ट प्रकाशित हो जाती हैं और पत्थर, टीले, पहाड़, गुफा एवं उबड़-खाबड़ स्थान साफ-साफ नजर आने लगते हैं, तब उसी पुरुष को अभीष्ट स्थान पर पहुँचाने वाला मार्ग स्पष्ट दिखाई देने लगता है, क्योंकि उस समय उसके नेत्रों की शक्ति प्रकट हो जाती है। ठीक इसी प्रकार जो नौसिखिया, अपरिपक्व साधक अभी सूत्रों के अर्थों और वस्तुस्वरूप को ठीक-ठीक जान नहीं पाया है, वह धर्मतत्त्व में अनिपुण है, अपुष्ट है, अपरिपक्व है, कच्चा है। किन्तु वही एक दिन का अपरिपक्व, नौसिखिया, अगीतार्थ, सूत्रार्थ से अबोध साधक (शिष्य) जब गुरु-चरणों में रहकर सर्वज्ञप्रणीत आगमों का गहन अध्ययन कर लेता है, तो उसकी आत्मा में सर्वज्ञ का ज्ञान प्रकाशमान हो जाता है, और वह धर्म में निपुण होकर जीवादि पदार्थों को इसी प्रकार स्पष्ट जान देख लेता है, जिस प्रकार सूर्योदय होने पर नेत्रों के द्वारा वह घट-पटादि पदार्थों को स्पष्ट जानता देखता है। तात्पर्य यह है कि जैसे इन्द्रिय और पदार्थों के संयोग से घट-पटादि पदार्थ स्पष्ट दिखाई देते हैं, इसी तरह सर्वज्ञप्रणीत आगमों के द्वारा भी सूक्ष्म, व्यवधानयुक्त, और दूरवर्ती स्वर्ग, मोक्ष, देव, पुण्य-पाप आदि का फल इत्यादि पदार्थ साफ-साफ और निश्चित प्रतीत होते हैं। शास्त्रकार का आशय इस प्रकार दृष्टान्त देकर समझाने के पीछे यही प्रतीत होता है कि जो साधक विलकुल अपरिपक्व, मन्दबुद्धि, बिलकुल अबोध और
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