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ग्रन्थ : चौदहवाँ अध्ययन
९३५ प्राणातिघात से विरत होने की प्रेरणा देते हुए वे कहते हैं--त्रस या स्थावर प्राणी उपकार करें या अपकार, साधु को उन पर थोड़ा-सा भी मन में द्वेष नहीं रखना चाहिए, फिर उन्हें दुर्वचन कहने या डंडे आदि से उन पर प्रहार करने की तो बात ही दूर रही। कदाचित् वे अपना कोई अनिष्ट करें या हानि पहुँचाएं तो भी उनके प्रति अमंगल की भावना मन में नहीं होनी चाहिए।
साधु को अपने प्रथम महाव्रत का ध्यान रखते हुए तथा प्राणातिपात को महान ग्रन्थ और पापकर्मबन्ध का महाकारण समझकर उससे प्रत्येक क्षेत्र में, प्रत्येक काल में, प्रत्येक जीव के प्रति, प्रत्येक द्वेषादिभाव से बचने का प्रयत्न करना चाहिए और तीन करण तीन योग मे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप प्राणातिपात से दूर रहकर अपने संयम पर अविचल रहना चाहिए । जैसे प्राणातिपात विरति का उपदेश है, वैसे अन्य असत्य आदि ग्रन्थों से भी विरति का उपदेश भी यहाँ समझ लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि साध को ग्रहण-शिक्षा तथा आसेवना-शिक्षा से युक्त होकर समस्त महाव्रतों और उत्तरगुणों का भली-भांति पालन करना चाहिए।
मूल पाठ कालेण पुच्छे समियं पयासु, आइक्खमाणो दवियस्स वित्त । तं सोयकारी पुढो पवेसे, संखा इमं केवलियं समाहि ॥१५॥ अस्सि सुठिच्चा तिविहेण तायी, एएसु या संति निरोहमाहु । ते एवमक्खंति तिलोगदंसी ण भुज्ज एयंतु पमायसंगं ॥१६॥ निसम्म से भिक्खू समीहियटुं, पडिभाणवं होइ विसारए य । आयाणअट्ठी वोदाणमोणं, उवेच्च सुद्धेण उवेइ मोक्खं ॥१७॥
संस्कृत छाया कालेन पृच्छेत् समितं प्रजासु, आचक्षमाणो द्रव्यस्य वित्तम् । तच्छोत्रकारी पृथक प्रवेशयेत्, संख्यायेमं कैवलिकं समाधिम् ॥१५॥ अस्मिन् सुस्थाय त्रिविधेन त्रायी, एतेषु च शान्ति निरोधमाहु । त एवमाचक्षते त्रिलोकदर्शिन: न भूयो यन्तु प्रमादसंगम् ॥१६।। निशम्य स भिक्षुः समीहितार्थं, प्रतिभानवान् भवति विशारदश्च । आदानार्थी व्यवदानमौन मुपेत्य शुद्ध नोपैति मोक्षम् ॥१७॥
अन्वयार्थ (कालेण पयासु समियं पुच्छे) साधु अवसर देखकर प्राणियों के विषय में रागमनसम्पन्न आचार्य से प्रश्न पूछे (दवियस्स वित्त आइक्खमाणो) तथा मोक्षगमन के (द्रव्य) सर्वज्ञ वीतराग के आगम (ज्ञान-धन) को बताने वाले आचार्य की
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