SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 975
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६३० सूत्रकृतांग सूत्र पूर्वाग्रह और कदाग्रहवश जब भूल पर भूल करता जाएगा, और कोई उसकी भूल सुधारने या सुझाकर दुरुस्त कराने वाला नहीं मिलेगा तो भूलों का बहुत बड़ा जत्था इकट्ठा हो जाएगा। उसे भूलों का जत्था नहीं, अशुभकर्मों का जत्था समझना चाहिए । ऐसा व्यक्ति उन अशुभकर्मों के फलस्वरूप संसार के महाप्रवाह में बहता जाता है । वह आया था मुनिधर्म में दीक्षित होकर संसार-सागर से पार उतरने के लिए, इसके बदले वह संसारसागर में गोते खाता फिरता है। कितनी बड़ी हानि है यह ! आगे शास्त्रकार उसके लिए कहते हैं कि उसे यह चाहिए था कि यह तो घर के (सहधर्मी) साधु और गृहस्थ ही मुझे सावधान कर रहे हैं, अगर परधर्मी, अन्यतीर्थिक साधु या गृहस्थ, चाहे वह उम्र में उससे छोटा हो या बड़ा हो, पद में उससे कितना ही नीचा हो, व्रतों में न्यून हो, यहाँ तक कि दासी के यहाँ काम करने वाली घटदासी भी क्यों न हों, अगर वह भी किसी शुभकार्य की ओर या धर्मकार्य की ओर प्रेरित करती है या कोई भी व्यक्ति किसी भी जाति, कुल, धर्म, सम्प्रदाय, देश और वेष का व्यक्ति उसे अपने आगमों का हवाला देकर उत्कृष्ट साधु धर्म की शिक्षा देता है, कोई सुझाव, परामर्श या प्रेरणा देता है, और यहाँ तक कह देता है कि "जो कार्य आप कर रहे हैं, यह कार्य तो गृहस्थ के करने योग्य भी नहीं है, अथवा आप इतने उतावले और असभ्य वचन बोल रहे हैं, या जल्दी-जल्दी चल रहे हैं, यह शास्त्रविहित नहीं है, अथवा आप जो हीन आचरण कर रहे हैं, वह आपके आगमों से विहित नहीं है, क्या आप इतना भी नहीं समझते कि यह आचार आपके लिए उचित नहीं है, ऐसा तो एक दासी भी नहीं कर सकती।'' इतने अपमानपूर्वक और धिक्कारपूर्वक भी साधु को यदि कोई अच्छी बात सुझाता है, सुन्दर हितकारक उपदेश, या शिक्षा देता है तो साधु मन में जरा भी बुरा न माने, बल्कि अपने मूलगुणों या उत्तरगणों में किसी प्रकार की हुई भूल को सुझाने के लिए उसका उपकार माने, गुस्सा तो बिलकुल न करे । और न कभी उन भूल सुझाने वालों के वचन पर आगबबूला होकर उनसे बदला लेने की कोशिश करे, उन्हें किसी प्रकार से व्यथित-पीड़ित न करे, उन पर मारण-मोहन-उच्चाटन आदि विद्याओं का प्रयोग करके उनका अहित न करे, न उन्हें कठोर शब्द या अपशब्द कहें । कदाचित् कोई व्यक्ति उक्त साधु के लिए कोई गलत बात भी कहता है तो वह यह सोचे कि गलत कहने वाले के प्रति क्रोध करना तो स्वयं गलती करना है और उसके बराबर गलत होना है। उस समय साधु यह विचार करे---- आक्रष्टेन मतिमता तत्त्वार्थविचारणे मतिः कार्या । यदि सत्यं क: कोप: ? स्यादनृतं किं नु कोपेन ? अर्थात् --- किसी के द्वारा की जाती हुई अपनी निन्दा या बदनामी को सुनकर बुद्धिमान् पुरुष सत्य तत्त्व के अन्वेषण में अपनी बुद्धि लगाए और यह समझे कि बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy