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________________ ग्रन्थ : चौदहवां अध्ययन सच्ची है तो क्रोध क्यों करना चाहिए ? यदि बात झूठी है तो भी क्रोध की क्या आवश्यकता है ? क्रोध भी झूठ है एक प्रकार का। आत्मा का यह गुण नहीं है, इसलिए आत्मा की दृष्टि से यह असत्य है। इस प्रकार चिन्तन के प्रकाश में साधु दूसरे को भला-बुरा न कहकर या संतप्त न करके, स्वयं सोचे-समझे--- 'यह मेरे ही असत् अनुष्ठान का फल है, जिससे यह मुझे ऐसी प्रेरणा कर रहा है। बल्कि साधु अपनी गलती को ढूंढकर चेतावनी देने वालों के प्रति कृतज्ञतापूर्वक मध्यस्थवृत्ति से यह संकल्प करे कि 'अब से मैं ऐसा ही करूंगा, या अब ऐसी गलती न होगी।' तथा अपने पूर्वाचरण के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' कहे। पूर्वोक्त शिक्षा या प्रेरणा के सम्बन्ध में साधु यह सोचे कि-"इन्होंने जो मुझे सुझाव, परामर्श, चेतावनी, प्रेरणा या शिक्षा दी है, इसमें मेरा ही तो कल्याण है, क्योंकि इन्हीं लोगों की शिक्षा, प्रेरणा आदि की बदौलत अब कभी मुझसे ऐसा अनुचित कार्य न होगा।" इस प्रकार समझकर साधु कभी असत् आचरण न करे । इसी बात को शास्त्रकार दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं-- एक घोर जंगल है। उसमें किसी यात्री को दिशाभ्रम हो गया, इस कारण वह रास्ते से भटक गया है, सही मार्ग का उसे पता नहीं पड़ रहा है, वह घबरा रहा है, भूख, प्यास, थकान आदि के कारण हैरान हो रहा है, ऐसी स्थिति में यदि कोई मार्ग का जानकार जो कि सही और गलत रास्तों को भलीभाँति जानता है, आकर कुमार्ग से छुड़ाकर जनता के लिए हितकारक तथा निर्विघ्न इष्ट स्थान पर पहुँचाने वाला मार्ग बता देता है तो वह दिग्मूढ़ तथा मार्गभ्रष्ट यात्री उससे यथार्थमार्ग का ज्ञान पाकर अपना कल्याण मानता है, उस पर प्रसन्न होता है, इसी प्रकार भ्रान्त होकर असतमार्ग में प्रवृत्त साधु को भी कोई उस असत्मार्ग से छुड़ाने के लिए सन्मार्ग का उपदेश, सुझाव या परामर्श देता है तो उस पर प्रसन्न होना चाहिए और यह समझना चाहिए, कि इसी में मेरा कल्याण है। इस हितैषी ने मुझ पर इतनी कृपा की है। ___ साथ ही उनके लिए यह सोचना चाहिए कि जैसे पिता अपने पुत्र को अच्छे मार्ग की शिक्षा देता है, इसी तरह ये वृद्ध लोग या प्रबुद्ध लोग मुझे सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा देते हैं, इसमें मेरी हानि क्या है, बल्कि मेरा अपना कल्याण ही है । भगवान महावीर और उनके अनुगामी गणधरों, आचार्यों आदि ने एक उपमा देकर इसे समझाया है कि जैसे मार्गभ्रष्ट पुरुष सही-सलामत पहुँचाने वाले, सन्मार्ग को बताने वाले किरात आदि का भी परम उपकार मानकर विशेष रूप से उसका आदर सत्कार करता है, वैसे ही संयमपालन में भूल करने वाले मार्गभ्रष्ट साधु को सन्मार्ग की प्रेरणा देने वालों की सद्भावना को समझकर, उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए, तथा उनका उपकार मानकर उनकी हितशिक्षा को शिरोधार्य करना चाहिए, उनका आदर करना चाहिए। इतना ही नहीं, उनके उपदेशात्मक या हितशिक्षात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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