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________________ ग्रन्थ : चौदहवाँ अध्ययन ६२६ कुटुम्ब-परिवार आदि का त्याग करके गुरु के चरणों में अपने आपको समर्पण कर देता है, तब उसे इतना अहंकारशून्य हो जाना चाहिए कि गुरु या गुरुदेव की शिष्यमंडली में से कोई साधु-साध्वी या गृहस्थ भाई-बहन, अथवा घटदासी तक उसकी भूल सुझाए तो उसे नम्रतापूर्वक उनकी बातों को सुनना चाहिए, शान्त हृदय से, ठंडे दिमाग से उस पर सोचना चाहिए कि वास्तव में अगर मेरी यह भूल है तो मुझे अपनी भूल सुझाने वाले या मुझे स्वहितकारक कोई उपदेश या सुझाव-परामर्श या सम्मति देने वाले का बहुत उपकार मानना चाहिए कि उसने बिना किसी स्वार्थ या दुर्भाव से मुझे यह चेतावनी दी. गलत मार्ग पर जाते हुए मुझे सावधान किया। इसके विपरीत यह सोचकर उस व्यक्ति पर झल्ला नहीं उठना चाहिए, यों नहीं कहना या सोचना चाहिए कि “मैं उत्तम कुलोत्पन्न हूँ, उच्च चारित्रवान हूँ, मेरी इतनी प्रतिष्ठा है समाज में, सब लोग मेरा आदर करते हैं और यह तीन कौड़ी का आदमी या मेरे से छोटा (उम्र और दीक्षा में) साधु या यह मेरे से व्रत में बहुत हीन गृहस्थ बहन या भाई मुझे इस प्रकार शिक्षा दे रहा है ? हटो यहाँ से, मैं तुम सबकी नहीं मानता, तुम मुझ से जलते हो, इसलिए मुझे इस प्रकार बदनाम करना चाहते हो । जाओ, जाओ, किसी और से कहना।" शास्त्रकार कहते हैं ---"सम्म तयं थिरतो णाभिगच्छे णिज्जंनए वावि अपारए से'' आशय यह है कि गुरुकुलनिवासी होने पर ही साधु के जीवन का सर्वांगीण निर्माण हो सकता, क्योंकि वहाँ जरा-सी गलती होने पर कोई न कोई व्यक्ति उसे सावधान करेगा ही। किन्तु वहाँ अगर प्रमादवश संयम-पालन में कहीं भूल हो जाय और उम्र या दीक्षा में अथवा शास्त्रज्ञान में छोटा या बड़ा साधु उसे सावधान करे "आप जैसे योग्य, कुलीन और महान् साधु को ऐसी गलती नहीं करनी चाहिए,' अथवा समवयस्क सहपाठी साधु उसे कहते हैं --"भाई! आप जैसे विद्वान और विवेकी साधु ऐसी भूल कैसे कर बैठे ? खैर, अब भी कोई बात नहीं, आप इस भूल को सुधार लीजिए।' इस प्रकार कहने वालों पर वह साधु क्रोध से भड़क न उठे, बल्कि शान्तिपूर्वक सुने और सहन करे । परन्तु जो इस प्रकार नहीं करके, उलटे गलती से सावधान करने वालों पर बरस पड़ता है, उन्हें भला-बुरा (पूर्वोक्त प्रकार से) कहने लगता है, अपने आपको संभालकर 'मिच्छामि दुक्कडं' नहीं करता, या अपनी भूल स्वीकार नहीं करता, वह साधु अपनी आत्मशुद्धि के सबसे उत्तम अवसर को खो देता है, अपने जीवन-निर्माण के सुनहरे मौके को हाथ से गँवा देता है, अपने दिल-दिमाग के दरवाजे बन्द करके वह अपने सुधार का मार्ग बन्द कर देता है, भविष्य में किसी प्रकार की छोटी-या बड़ी गलती होने पर उन हितैषियों द्वारा स्वयं को सावधान किये जाने, प्रेरित किये जाने का मार्ग ही बन्द कर देता है, चेतावनी देने या भल बताने वालों को अनुत्साहित करके । यह कितनी बड़ी हानि होगी, उसकी आत्मा के लिए। और फिर वह अपने अहंकार, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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