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सूत्रकृतांग सूत्र
में बड़े या समवयस्क साधु के द्वारा भूल सुधारने के लिए प्रेरित (अनुशा - सित) किए जाने पर जो साधु उसे सम्यक् रूप से स्वीकार नहीं करता, बल्कि झुंझला उठता है । ऐसा साधक संसार के प्रवाह में वह जाता है, वह संसार को पार करने में समर्थ नहीं होता ॥७॥
शास्त्रविरुद्ध कार्य करने वाले गृहस्थ, परतीर्थी आदि के द्वारा अर्हद्दर्शन के आचार की शिक्षा दिए जाने पर, तथा अवस्था में छोटे या बड़े व्यक्ति के द्वारा शुभकार्य में प्रेरित किए जाने पर अथवा अत्यन्त नीचा कर्म करने वाली घटदासी द्वारा भी धर्मकार्य की शिक्षा दिये जाने पर साधु को क्रोध नहीं करना चाहिए ||८||
पूर्वोक्त प्रकार से शिक्षा दिए जाने पर साधु शिक्षा देने वालों पर गुस्सा न करें, उन्हें किसी प्रकार से तंग न करे, न उन्हें कठोर शब्द या अपशब्द कहे, अपितु उनके सामने ऐसी प्रतिज्ञा करे कि 'अब मैं ऐसा ही करूंगा।' वल्कि वह साधु यह समझे कि इसी में मेरा कल्याण है, इसलिए प्रमाद न करे || |
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जैसे जंगल में मार्ग भूला हुआ व्यक्ति मार्ग के जानकार द्वारा सर्वजन कल्याणकारक मार्ग की शिक्षा पाकर प्रसन्न हो उठता है, ठीक इसी तरह उत्तममार्ग की शिक्षा देने वालों पर साबु प्रसन्न रहे, और यह समझे कि ये बुद्ध या वृद्ध लोग मुझे जो उपदेश देते हैं, वही मेरे लिए कल्याणकारक है ॥ १० ॥
जैसे मार्गभ्रष्ट पुरुष मार्ग बताने वाले की विशेष पूजा (आदरसत्कार ) करता है, इसी तरह सन्मार्ग की शिक्षा देने वाले का संयमपालन में भूल करने वाला साधु विशेषरूप से आदर-सत्कार करे और उसके उपदेश को हृदय में धारण करे, उसका उपकार माने, यही उपदेश तीर्थंकरों और गणधरों ने दिया है ॥। ११ ॥
व्याख्या
भूल बताने वाले का वचन शिरोधार्य करे
सातवीं गाथा से लेकर ग्यारहवीं गाथा तक शास्त्रकार ने यह बताया है कि साधु संयमपालन में प्रमादवश कोई गलती कर जाय और उसे कोई भी छोटा या बड़ा साधक या गृहस्थ या दासी तक सावधान करे तो उस समय वह उनके वचनों को ठुकराए नहीं, झुंझलाए नहीं, उन पर बरस न पड़े, बल्कि शान्ति से, नम्रता से अपनी गलती स्वीकार कर उनका उपकार माने और भविष्य में वैसी भूल न करने का उन्हें वचन दे | कितनी सुन्दर नीति है निर्ग्रन्थता की, पूर्वाग्रह - कदाग्रह की गाँठ से रहित होने की ! वास्तव में जो साधक अपना सब घरबार, जमीन-जायदाद,
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