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________________ ग्रन्थ : चौदहवाँ अध्ययन अथ तेन मूढेनामूढस्य, कर्त्तव्या पूजा सविशेषयुक्ता एतामुपमां तत्रोदाहृतवान् वीरः, अनुगम्यार्थ मपनयति सम्यक् ६२७ अन्वयार्थ ( डहरेण बुड्ढणऽणुसा सिए) किसी प्रकार का प्रमाद होने पर अपने से छोटे या बड़े साधु के द्वारा भूल सुधारने के लिए अनुशासित ( शिक्षा दिया हुआ ) (राइणि एणावि समव्वएण) अथवा अपने से प्रव्रज्या में ज्येष्ठ अथवा समवयस्क साधक द्वारा भूल सुधारने के लिए प्रेरित किया हुआ जो पुरुष ( सम्मं तयं थिरओ णाभिगच्छे ) अच्छी तरह स्थिरता के साथ स्वीकार नहीं करता है । ( णिज्जंत एवावि अपारए से ) वह संसार के प्रवाह में बह जाता है, वह उसे पार करने में समर्थ नहीं होता ||७|| ( विउट्ठितेणं समयाणु सिट्ठे ) शास्त्र विरुद्ध कार्य करने वाले गृहस्थ तथा परतीर्थी आदि के द्वारा अर्हदर्शन के आचार की शिक्षा दिया हुआ साधु ( डहरेण वुड्ढे उ चोइए ) तथा उम्र में छोटे या बड़े के द्वारा शुभ कार्य की ओर प्रेरित किया हुआ, (अच्चुट्टियाए घडदासिए वा ) अत्यन्त नीचा (तुच्छ ) काम करने वाली घटदासी के द्वारा भी धर्म-कार्य का उपदेश किया हुआ ( अगारिणं वा समयाणुसिट्ठे ) अथवा किसी के द्वारा यह कहा हुआ कि "यह कार्य तो गृहस्थ के योग्य भी नहीं है, फिर साधुओं की तो बात ही क्या है ?" साधु क्रोध न करे ||८|| 1 ॥। ११॥ (तेसुण कुझे ) पूर्वोक्त रूप से शिक्षा देने वालों पर साधु क्रोध न करे (ण य पव्वज्जा) तथा न उन्हें पीड़ित करे, (णयावि किचि फरुसं वएज्जा ) एवं उन्हें कटुशब्द न कहे, ( तहा करिस्संति पडिसुणेज्जा) किन्तु मैं आयंदा ऐसा ही करूंगा साधु ऐसी प्रतिज्ञा करे (सेयंखु मेयं) और वह यह समझे कि इसी में ही मेरा कल्याण है, (ण पमायं कुज्जा ) इसलिए प्रमाद न करे || ६ || ( जहा अमूढा ) जैसे मार्ग जानने वाले पुरुष (वर्णसि मूढस्स ) जंगल में मार्ग भूले हुए पुरुष को (पाणं हियं मग्गाणुसासंति) प्रजाओं के लिए हितकर मार्ग की शिक्षा देते हैं, (तेणेव मज्झं एणमेव सेयं) इसी तरह मेरे लिए भी यही कल्याणकारक उपदेश है, (जं मे बुद्धा समणुसासंति) कि ये वृद्ध या तत्त्वज्ञ पुरुष मुझे शिक्षा देते हैं ॥१०॥ ( अह तेण मूढेण ) इसके पश्चात् उस मूढ पुरुष को ( अमूढगस्स सविसेसजुत्ता या काव्व) अमूढ ( विवेकी) पुरुष की विशेषरूप से पूजा करनी चाहिए | ( तत्थ वीरे एओवमं उदाहु) इस विषय में वीरप्रभु ने यही उपमा बताई है | ( अत्यं अणुगम्म सम्मं उवणेति) पदार्थ को समझकर प्रेरक के उपकार को सम्यरूप से हृदय में स्थापित कर लेता है ।। ११ ।। Jain Education International भावार्थ प्रमादवश कदाचित् भूल होने पर अपने से छोटे या बड़े अथवा दीक्षा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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