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सूत्रकृतांग सूत्र कर बाहर न जाए। गुरुकुल में निवास करने वाले साधक को वहाँ किन गुणों की प्राप्ति होती है, यह अगली गाथा में शास्त्रकार कहते हैं---
मूल पाठ जे ठाणओ य सयणासणे य, परक्कमे यावि सुसाहुजुने । समितिस गुत्तीस य आयपन्ने, वियाईरते य पुढो वएज्जा ॥५॥
संस्कृत छाया यः स्थानतश्च शयनासनाभ्यां च, पराक्रमतश्च सुसाधुयुक्तः । समितिषु गुप्तिषु चागतप्रज्ञो, व्याकुर्वश्च पृथक् वदेत् ॥५॥
___ अन्वयार्थ (ठाणओ सयणासणे य परक्कम्मे यावि सुसाहुजुत्ते) गुरुकुल में निवास करने वाला साधक स्थान, आसन, शयन और पराक्रम के द्वारा उत्तम साधु के समान आचरण करता है । तथा (समितिसु गुत्तीसु य आयपन्ने) वह समितियों और गुप्तियों के विषय में अभ्यस्त होने से अत्यन्त प्रज्ञावान (अनुभवी) हो जाता है। (वियारिते य पुढो वएज्जा) वह समिति और गुप्ति का यथार्थ स्वरूप पृथक-पृथक विश्लेषण करके दूसरों को भी बताता है।
भावार्थ गुरुकुल में निवास करने वाला साधु स्थान, शयन, आसन और पराक्रम के सम्बन्ध में उत्तम साधु के समान आचरण करता है तथा वह समितियों और गप्तियों के बारे में अभ्यस्त होने से अत्यन्त प्रवीगा हो जाता है। वह दूसरों को भी समिति और गुप्ति का पृथक विश्लेषण करके उपदेश देता है।
व्याख्या गुरुकुल निवास से साधक को लाभ
गुरुकुल निवासी साधु को किन-किन गुणों की प्राप्ति होती है ? यह इस गाथा में बताया गया है। 'जैसा संग वैसा रंग' इस कहावत के अनुसार साधक जब गुरुदेव के सान्निध्य में रहता है, तब गुरुदेव और उनके पास रहने वाले साधकों के उत्तमोत्तम गुणों का प्रभाव उक्त साधक पर पड़े बिना नहीं रहता। फिर रात-दिन जिन बातों का चिन्तन, मनन, श्रवण, आचरण और उपदेश होता है, उनके पवित्र संस्कार भी उसके मानस में सुदृढ़ होते जाते हैं। इस दृष्टि से गुरुसानिध्य में रहने वाले साधक की स्थान (ठहरना), आसन (बैठना), शयन (सोना), गमन-आगमन, तप करना, कायोत्सर्ग करना, ध्यान, मौन, जप तथा संयम की विभिन्न क्रियाओं के विषय में पराक्रम करना आदि समस्त क्रियाएँ बहुत ही सावधानी से विवेक, वैराग्य
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