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ग्रन्थ : चौदहवाँ अध्ययन
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और न्याग के साथ पवित्र आध्यात्मिक भावनाओं से सनी हुई होती हैं। कायोत्सर्ग करते समय भी प्रमार्जन करके मेरुपर्वत के समान अडोल और शरीर से निरपेक्ष हो जाता है, शयन करते समय विछौना, भूमि और अपने शरीर को भलीभाँति देखभाल कर, प्रमार्जन करके गुरु की आज्ञा लेकर शास्त्रोक्तकाल में सोता है, सोया हुआ भी वह सतर्क रहता है। जरा-सी आहट पाते ही जागृत हो जाता है। आसन आदि पर बैठा हुआ भी अपने शरीर को संकोच कर बैठता है, स्वाध्याय, ध्यान आदि दैनिक क्रियाओं में सावधान और तत्पर रहता है। इसके अतिरिक्त गुरुकुलवासी साधु ईर्या समिति आदि प्रविचाररूप पाँच समितियों में तथा अप्रविचाररूप तीन गुप्तियों में विवेकवान होता है। वह कर्तव्य-अकर्तव्य, हिताहित, विनय और उत्तरदायित्व के भान से युक्त होता है। निष्कर्ष यह है कि गुरु के सान्निध्य में रहने से उस साधक के जीवन का सर्वांगीण निर्माण हो जाता है। गुरुकृपा से वह समिति, गुप्ति आदि का स्वरूप जानकर तथा उनके अभ्यास से अनुभवी एवं माहिर होकर दूसरों को भी उनके यथार्थस्वरूप, उनके पालन एवं फल का उपदेश देता है।
मल पाठ सद्दाणि सोच्चा अदु भेरवाणि, अणासवे तेसु परिव्वएज्जा । निद्द च भिक्खू न पमायं कुज्जा, कहकह वा वितिगिच्छतिन्ने ॥६॥
संस्कृत छाया शब्दान् श्र त्वाऽथ भैरवान, अनाश्रवस्तेषु परिव्रजेत निद्रां च भिक्षुर्न प्रमादं कुर्यात्, कथं कथं वा विचिकित्सातीर्णः ॥६॥
अन्वयार्थ (सहाणि अद् भेरवाणि सोच्चा) मधुर या भयंकर शब्दों को सुनकर (तेसु अणासवे परिदएज्जा) उनमें रागद्वेषरहित होकर साधु संयम में प्रगति करे, (भिक्खू निई पमायं न कुज्जा) साधु निद्रा और प्रमाद न करे, (कहकहं वा वितिगिच्छतिन्ने) किसी विषय में शंका होने पर गुरु की कृपा से उससे पार हो जाए।
भावार्थ ईर्यासमिति आदि से युक्त साधु मधुर या भयंकर शब्दों को सुनकर उनमें रागद्वेष न करे, वह अपने संयम में पराक्रम करे, तथा निद्रारूप प्रमाद न करे, और किसी विषय में शंका होने पर गुरु की कृपा से उससे पार हो जाय !
व्याख्या
निर्गन्थ मुनि पंचेन्द्रियविषयक ग्रन्थ को तोड़े निर्ग्रन्थ मुनि के कानों से अच्छे या बुरे, कर्णप्रिय या कर्णकटु शब्द टकराए
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