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ग्रन्थ : चौदहवाँ अध्ययन
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हैं | इस प्रकार धर्मतत्त्व में अनिपुण, अधकचरे साधक को कई लोग चकमे में डालकर उसके सर्वस्व संयमधन का अपहरण कर लेते हैं ।
ये और इस प्रकार के बहुत से अनर्थों की सम्भावनाएँ अपरिपक्व साधक के गुरुकुल छोड़कर बाहर स्वतन्त्र विचरण करने में हैं, इसी दृष्टि से शास्त्रकार चौथी गाथा में गुरुकुलवास पर विशेष जोर देते हैं-- 'ओसाणमिच्छे मणुए समाहि ।' अर्थात् - अगर साधक पुरुष समाधि - उत्तम धर्मध्यान या ज्ञानदर्शनचारित्रयुक्त मोक्षमार्ग की साधना करना चाहता है तो जीवनपर्यन्त या जब तक अपरिपक्व है तब तक गुरु के सान्निध्य में, या गुरु के आदेश निर्देश में रहे । गुरुचरणों में नहीं रहने वाला साधक कर्मों का अन्त नहीं कर सकता है । अथवा जो साधक गुरु के सान्निध्य में निवास नहीं करता और स्वच्छन्द होकर विचरण करता है, वह प्रतिज्ञा किये हुए उत्तम अनुठानरूप कार्य को पार नहीं लगता, यह जानकर सदा गुरुकुल में निवास करना श्रेयस्कर है । जो साधक गुरुकुल में निवास नहीं करता, उसका जो भी ज्ञान-विज्ञान है, वह उपहासास्पद होता है । कहा भी है
न हि भवति निर्विगोपकमनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानम् । प्रकटितपश्चाद्भागं पश्यत नृत्यं मयूरस्य
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गुरुकुल की उपासना नहीं किये हुए साधक का विज्ञान उसकी रक्षा करने में समर्थ नहीं होता । जैसे गुरु के उपदेश के बिना अपने मन से मनमाना नाच करने वाले मोर का पिछला भाग बिलकुल नंगा हो जाता है । जैसे एक गुरु-उपासक वैद्य ने ऊँट के गले में अटके हुए तुम्बे को मुक्का मारकर उसे ठीक ( स्वस्थ ) कर दिया था, किन्तु एक राह चलते गँवार ने यह देखकर सोचा- मैं भी इसी प्रकार उपचार करके क्यों नहीं इस वैद्य की तरह मालामाल बन जाऊँ । चट से उसने एक दूकान ले ली, वहाँ वैद्यराज बनकर बैठ गया और यों ही चूर्ण चटनी देने लगा । एक दिन एक बुढ़िया को लेकर कुछ लोग उस नकली वैद्य के पास आये । बुढ़िया के गले में गण्डमाल था । नकली वैद्यराज ने गुरु की उपासना से तो कुछ सीखा नहीं था ।
बुढ़िया के गले पर जोर से
वे इसे उस ऊँट की तरह गला फूला हुआ समझे और मुक्का मारा । बेचारी बुढ़िया तो वहीं ढेर हो गई । बुढ़िया के सम्बन्धियों ने उस ॐ वैद्य को बहुत भला-बुरा कहा और रो-धो कर चल दिए। ऐसी ही दशा उन अधकचरे अपरिपक्व साधकों की होती है, जो गुरु-उपासना से वंचित होकर मनमाना विचरण करते हैं । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-- 'ओभासमाणे दवियस्स वित्त' । विद्वान साधक मुक्तिगमनयोग्य साधु या रागद्वेषरहित सर्वज्ञ के अनुष्ठान को उत्तम आचरण द्वारा प्रकाशित करे । गुरुकुल में निवास करने से साधक में अनेक गुण स्वतः सहजभाव से आ जाते हैं, वह अपने अन्दर रहे हुए विषय कषायों को स्वतः या गुरु के उपदेश से हटा लेता है । इसलिए बुद्धिमान साधक गच्छ से निकल -
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