________________
सूत्रकृतांग सूत्र
२२
बैठे रहते हैं, उस पक्षी के बच्चे के रंगढंग देखकर चट से उसे उठा ले जाते हैं और मार डालते हैं ।
यही हालत गच्छ से बाहर निकलकर स्वच्छन्द विचरण करने वाले अपरिपक्व साधु की हो जाती है। अपरिपक्व साधक गीतार्थ नहीं होता, वह द्रव्य-क्षेत्रकाल- भाव को शीघ्र परख नहीं सकता, शास्त्रों के अर्थ करने एवं वस्तुतत्व को समझने अनिपुण होता है, धर्मतत्त्व को भली-भाँति जाना-समझा नहीं है, और गुरुचरणों में चिरकाल तक रहकर उसने अध्ययन, प्रशिक्षण और आचरण किया नहीं है । न उसे संकटापन्न परिस्थितियों में से रास्ता निकालने, संयम की सुरक्षा करने का अनुभव प्राप्त है। नौसिखिया साधक है । जब वह थोड़ा-सा बोलने और भाषण करने में वाचाल हो जाता है, तो अपने आपको बहुत ज्ञानी समझकर गुरु से अलग विचरण करने लगता है । ऐसे में उस अपरिपक्व साधक को प्राय: पाषण्डी लोग, भोला-भाला या अपने सैद्धान्तिक ज्ञान में बुद्ध या धर्मतत्त्व में अनिपुण समझकर बहकाने लगते हैं - अरे साधकजी ! तुम्हारे मत में तो आग जलाने, स्नान करने, विषहरण करने आदि का विधान ही नहीं है । यह तुम्हारा मत कैसा है ? तुम्हारे मत में अणिमा आदि आठ सिद्धियों का भी वर्णन नहीं है और न तुम्हारे मत को राजा, सेठ, सेनापति आदि बहुत से लोग मानते हैं । तुम्हारे मत में अहिंसा की इतनी बारीक और अव्यावहारिक व्याख्या है कि उसका पालन ही होना असम्भव है, जबकि यह सारा संसार जीवों से ठसाठस भरा हुआ है । ये और इस प्रकार के ऐन्द्रजालिक के-से वचन सुनकर वह अपरिपक्व साधक झटपट उनके चक्कर में पड़ जाता है । उसके पश्चात् धीरे-धीरे वे लोग उससे सम्पर्क बढ़ाते जाते हैं, और जब देखते हैं कि 'अब चिड़िया जाल में बिलकुल फँस गई है, अब कहीं जा नहीं सकती, तब उस परिपक्व साधक से कहते हैं --- ' अब जब इतना परिवर्तन तुमने कर लिया है तो इतना सा परिवर्तन और कर लो, यह वेष और क्रियाकाण्ड सब छोड़कर हमारे मत में आ जाओ । हम तुम्हें सब सुख-सुविधाएँ देंगे ।' इस प्रकार उक्त साधक को वे कुतीर्थी जिनका हृदय मिथ्यात्व, कपाय आदि से मलिन है, बहकाकर धर्मभ्रष्ट कर देते हैं । अथवा उसके स्वजन या राजा आदि कोई सत्ताधीश या धनाढ्य उसे अकेले विचरण करते देखकर उसे घर ले जाने और वेष आदि छोड़ देने के लिए बहकाते हैं। परिजन मधुर और प्रलोभन भरे शब्दों में कहते हैं - " आयुष्मन् ! तुम्हारे बिना हमारा पालन-पोषण कौन करेगा ? तुम ही हमारे सर्वस्व हो । आधार हो । घर चलो। तुम्हारी इच्छा हो तो वहाँ रहकर तुम अपने क्रियाकाण्ड करते रहना । तुम्हारे लिए हम सब सुविधाएँ जुटा देंगे ।" अथवा कोई राजादि शब्दादि विषयभोगों का आमंत्रण देकर उसे उत्तमधर्म से भ्रष्ट कर देते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org