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सूत्रकृतांग सूत्र
करेगा, ग्रहण एवं आसेवन दोनों प्रकार से विनय का भी वह प्रशिक्षण लेगा, और गुरु के सान्निध्य में रहने से वह सब प्रकार से संयममार्ग की साधना में कभी प्रमाद नहीं करेगा, और सब प्रकार से परिपक्व हो जाएगा।
जैसे रुग्ण व्यक्ति वैद्य की हिदायत के अनुसार, उसकी देख-रेख में औषधसेवन, पथ्यादि पालन करके शीघ्र ही रोग-मुक्त एवं स्वस्थ हो जाता है, वैसे ही साधु सावध-अनुष्ठानों, ग्रन्थों एवं प्रमाद का त्यागकर गुरु के सान्निध्य में रहकर गुरु के आदेश-निर्देश के अनुसार चलकर उनकी देख रेख में संयमप औषध सेवन एवं विनयादि पथ्यपालन करके एक दिन विषय-कषायों के रोग से मुक्त हो जाता है, स्वस्थ--आत्मस्वस्थ हो जाता है।
मूल पाठ जहा दियापोतमपत्तजातं, सावासगा पविउ मन्नमाणं । तमचाइयं तरुणमपत्तजातं, ढंकाइ अव्वत्तगमं हरेज्जा ॥२॥ एवं तु सेहंपि अपुठ्ठधम्म, निस्सारियं बुसिमं मन्नमाणा । दियस्स छायं व अपत्तजायं, हरिसु णं पावधम्मा अणेगे ॥३॥ ओसाणमिच्छे मणुए समाहि, अणोसिए णंतरिति गच्चा । ओभासमाणे दवियस्स वित्त, ण णिक्कसे बहिया आसुपन्नो॥४॥
संस्कृत छाया यथा द्विजपोतमपत्रजातं, स्वावासकात् प्लवितुं मन्यमानम् । तमशक्नुवन्तं तरुणमपत्रजातं, ढंकादयोऽव्यक्तगम हरेयुः ॥२।। एवं तु शैक्षमप्यपुष्टधर्माणं, निःसारितं वश्यं मन्यमानाः । द्विजस्य शावमिवापत्रजातं, हरेयुः पापधर्माणोऽनके ॥३॥ अवसानमिच्छेन्मनुजः समाधिमनुषितो नान्तकर इति ज्ञात्वा । अवभासयन् द्रव्यस्य वृत्तं, न निष्कसेद् बहिराशुप्रज्ञः ॥४॥
अन्वयार्थ (जहा दियापोतमपत्तजातं) जैसे कोई पक्षी का बच्चा पूरे पंख आए बिना (सावासगा पवित्रं मन्नमाणं) अपने आवास स्थान (घोसले) से उड़कर अन्यत्र जाना चाहता हुआ (अपत्तजातं तरुणं अचाइयं) पंख के बिना यह तरुण पक्षी उड़ने में असमर्थ होता है, (काइ अवत्तगम हरेज्जा) उर उड़ने में असमर्थ पक्षी के बच्चे को अस्पष्टरूप से (थोड़ा-थोड़ा) पंख फड़फड़ाते हुए देखकर ढंक आदि मांसाहारी पक्षी उसका हरण कर लेते हैं और मार डालते हैं ॥२॥
(एवं तु) इसी तरह (अपुट्ठयम्म) जो साधक अभी श्रुतचारित्ररूप धर्म में
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