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ग्रन्थ : चौदहवाँ अध्ययन
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आचार्य या गुरु के सान्निध्य में रहकर अध्ययन और आचरण दोनों तरह से शिक्षा नी अनिवार्य बताई है ।
दीक्षा लेते ही, बाह्य आभ्यन्तर ग्रन्थ-त्याग का संकल्प लेते ही, साधक के जीवन में महाव्रतों का अथवा ग्रन्थत्याग का पूर्णरूपेण आचरण नहीं हो जाता । उसके लिए सतत अभ्यास, प्रेरणा, वातावरण, शास्त्रों का अध्ययन, निर्ग्रन्थ गुरुओं का सान्निध्य और प्रशिक्षण की आवश्यकता है अन्यथा नवदीक्षित शिष्य के जीवन में संयम साधना परिपक्व और सुदृढ़ नहीं होती । वह साधक कच्चा ही रह जाता है और कच्चा एवं अध-कचरा साधक जहाँ कहीं भी जाता है, वहाँ कई तरह की गलतियाँ कर बैठता है । वह किसी प्रश्न का या किसी बात का सन्तोषजनक उत्तर नहीं दे सकता, किसी शंका का यथार्थ समाधान नहीं कर पाता, किसी के विवाद को निपटा नहीं सकता; परीषहों और उपसर्गों के आने पर उनसे घबरा कर या हार खाकर असंयममार्ग की और झुक जाता है या संयममार्ग को सर्वथा छोड़ बैठता है । किसी मिथ्यादृष्टि अन्य धर्म, सम्प्रदाय, पंथ या गुरु के बहकावे में आकर वह आचार में शिथिल हो जाता है, जीवन की सही पगडंडी से दूर भटक जाता है । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं— 'गयं विहाय इह सिक्खमाणो": विप्पमायं न कुज्जा । "
आशय यह है कि दीक्षा लेते समय समस्त बाह्य एवं आभ्यन्तर ग्रन्थों का त्याग करे, क्योंकि ग्रन्थत्याग किये बिना साधक निर्ग्रन्थ नहीं बन सकता; बार-बार ये गाँठें उसके संयमी जीवन में बाधक बनेंगी ।
fe धन-धान्यादि बाह्य तथा कषायादि आभ्यन्तर परिग्रह के द्वारा आत्मा संसार के मायाजाल में गुथ जाता है, उसे 'ग्रन्थ' कहते हैं ।
रहकर करे । साथ
हाँ तो, ग्रन्थ का त्याग करने के बाद दीक्षा लेकर साधु ५ महाव्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति, नववाड सहित ब्रह्मचर्य, भिक्षाचर्या, ग्रन्थत्याग, हिंसादित्याग एवं साध्वाचार के नियमोपनियमों के पालन का अभ्यास गुरु चरणों में ही गुरु की सेवा में रहकर वह साधक शास्त्रों का अध्ययन ( ग्रहण - शिक्षा) और तदनुसार आचरण ( आसेवन - शिक्षा ) दोनों प्रकार की शिक्षाओं का भली-भाँति अभ्यास करे । गुरु से दोनों प्रकार का प्रशिक्षण ले । गुरुदेव के चरणों में रहने से साधु को वातावरण भी संयमपूर्ण मिलेगा, साधु मंडली अध्ययन, मनन, चिन्तन, ध्यान, विनय, यम-नियम पालन आदि करेगी, वह देखेगा तो उसके अन्तर् में भी वैसे ही संस्कार जमेंगे । शास्त्रों के अध्ययन से उसे वस्तुतत्त्व का यथार्थ बोध होगा, बीच-बीच में आचरण के सम्बन्ध में उसे गुरुदेव द्वारा निर्देश आदेश मिलते रहेंगे, प्रेरणा मिलती रहेगी, जहाँ कहीं भूल होगी, वहाँ तुरन्त उसे सुधारने का प्रयत्न होगा । इस प्रकार मुमुक्षु साधक गुरु की आज्ञा का पालन करेगा, उनकी सेवा
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