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सूत्रकृतांग सूत्र
(आचरण) और उत्तरगुण- आसेवना के भेद से शिक्षा - शिष्य के भी दो अथवा अनेक भेद होते हैं, इसी प्रकार शिक्षागुरु के भी दो या अनेक भेद होते हैं ।
प्रस्तुत अध्ययन में यह बताया गया है कि ग्रन्थत्यागी शिक्षाशिष्य ( शैक्षक ) और शिक्षागुरु कैसे होने चाहिए ? उन्हें कैसी प्रवृत्ति करनी चाहिए ? उनके क्याक्या दायित्व और कर्तव्य हैं ? इन सब बातों के सम्बन्ध में संक्षेप में २७ गाथाओं द्वारा इस अध्ययन में निरूपण किया गया है ।
अतः इस अध्ययन की क्रमप्राप्त प्रथम गाथा इस प्रकार है
मूल पाठ
गंथं विहाय इह सिक्खमाणो, उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा । ओवायकारी विणयं सुसिक्खे, जे छेय विप्पमायं न कुज्जा ॥१॥
संस्कृत छाया ग्रन्थं विहायेह शिक्षमाणः, उत्थाय सुब्रह्मचर्यं वसेत्
अवपातकारी विनयं सुशिक्ष ेत्, यश्छेको विप्रमादं न कुर्यात् 11211 अन्वयार्थ
( इह ) इस लोक में (गंथं विहाय ) बाह्य और आभ्यन्तर सभी प्रकार के ग्रन्थों (परिग्रहों का त्याग करके ( सिक्खमाणो ) मोक्षमार्ग प्रतिपादक शास्त्रों का ग्रहण, अध्ययन और आसेवन (आचरण) रूप से गुरु से सीखता हुआ साधक ( उट्ठाय ) प्रव्रज्या लेकर (सुबंभचेरं वसेज्जा, उत्तम प्रकार के ब्रह्मचर्य का अच्छी तरह पालन करे, जीवन में बसा ले ---रमा ले। ( ओवायकारी विणयं सुसिक्खे ) तथा आचार्य या गुरु के सान्निध्य में या उनकी आज्ञा में रहता हुआ शिष्य विनय का प्रशिक्षण ( अभ्यास - तालीम) ले । (जे छेय विप्पमायं न कुज्जा) जो साधक संयम के अनुष्ठान में दक्ष है, वह संयम या मुनिधर्म के पालन में कदापि प्रमाद न करे ।
भावार्थ
इस लोक में बाह्य आभ्यन्तर समस्त ग्रन्थों (परिग्रहों ) का त्याग करके ग्रहण एवं आसेवनरूप से शास्त्रों को सीखता हुआ शिक्षाशिष्य प्रव्रज्या लेकर उत्तम प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन करे तथा आचार्य या गुरु के चरणों में या आज्ञा में रहकर विनय का अभ्यास करे । संयम पालन करने में निष्णात साधक कभी प्रमाद न करे ।
व्याख्या
ग्रन्थत्यागी शिष्य गुरु के सान्निध्य में शिक्षा ग्रहण करे
इस अध्ययन की प्रथम गाथा में शास्त्रकार ने समस्तग्रन्थत्यागी शिष्य को
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