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ग्रन्थ : चौदहवाँ अध्ययन
अध्ययन का संक्षिप्त परिचय तेरहवें अध्ययन 'याथातथ्य' की व्याख्या की जा चुकी है। अब चौदहवें अध्ययन की व्याख्या प्रारम्भ की जाती है । तेरहवें अध्ययन में शुद्ध (यातातथ्य) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विनय का निरूपण किया गया है, किन्तु ज्ञानादि तभी शुद्ध और निर्मल रह सकते हैं, जबकि बाह्य और आभ्यन्तर सभी प्रकार के ग्रन्थों (गाँठों) का त्याग किया जाय, और ग्रन्थसमूह का परित्याग भी ग्रन्थ को जानने से होता है, अतः इस अध्ययन में उस 'ग्रन्थ' का स्वरूप बताकर उसका परित्याग करने की प्रेरणा दी गई है। इसीलिए इस अध्ययन का नाम 'अन्य' रखा गया है। नियुक्तिकार के अनुसार ग्रन्थ का सामान्यतया अर्थ 'परिग्रह' होता है। ग्रन्थ के दो प्रकार हैंबाह्यग्रन्थ और आभ्यन्तर ग्रन्थ । बाह्यग्रन्थ के मुख्य १० प्रकार हैं--(१) क्षेत्र, (२) वास्तु, (३) धन-धान्य, (४) ज्ञातिजन व मित्र या द्विपद-चतुष्पद, (५) वाहन, (६) शयन, (७) आसन, (८) दासी-दास, (६) स्वर्ण-रजत, (१०) विविध साधनसामग्री। इन दस प्रकार के बाह्य ग्रन्थों में मूर्छा रखना ही वास्तव में ग्रन्थ है। आभ्यन्तर ग्रन्थ के मुख्यतया १४ प्रकार हैं--(१) क्रोध, (२) मान, (३) माया, (४) लोभ, (५) राग-मोह, (६) द्वेष, (७) मिथ्यात्व, (८) कामाचार (वेद), (६) असंयम में रुचि (रति), (१०) संयम में अरुचि (अरति), (११) विकारी हास्य, (१२) शोक, (१३) भय और (१४) जुगुप्सा (घृणा)।
__ जो इन दोनों प्रकार के ग्रन्थों से रहित हैं, अर्थात्-जिन्हें इन दोनों प्रकार के ग्रन्थों से लगाव या आसक्ति नहीं है, तथा जो संयममार्ग की प्ररूपणा करने वाले आचारांग आदि ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं, वे शिष्य कहलाते हैं। शिष्य दो प्रकार के होते हैं-दीक्षाशिष्य और शिक्षाशिष्य । जो दीक्षा देकर शिष्य बनाया जाता है, उसे दीक्षाशिष्य कहते हैं, और जो आचारांग आदि सूत्रों की शिक्षा देकर शिष्य बनाया जाता है, उसे शिक्षाशिष्य कहते हैं। जो शिक्षा को ग्रहण करता हैं, उसे शैक्ष या शैक्षक कहते हैं। इस अध्ययन में शैक्षक तथा उसकी शिक्षा के सम्बन्ध में कहा गया है। शिष्य की तरह आचार्य या गुरु के भी दो भेद हैं--एक दीक्षा देने वाला, दूसरा शिक्षा देने वाला, अर्थात् दीक्षागुरु और शिक्षागुरु ।
शिक्षा लेने और तदनुसार आचरण करने की अपेक्षा, तथा मूलगुण-आसेवना
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