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याथातथ्य : तेरहवाँ अध्ययन
मूल पाठ आहत्तहीयं समुपेहमाणे सव्बेहिं पाणेहि णिहाय दंडं । णो जीवियं, णो मरणाभिकंखी, परिव्वएज्जा वलयाविमुक्के ॥२३॥
त्ति बेमि॥ संस्कृत छाया याथातथ्यं समुत्प्रेक्षमाणः, सर्वेषु प्राणिषु निधाय दण्डम् । नो जीवितं, नो मरणाभिकांक्षी, परिव्रजेद् वलयाद् विमुक्तः ॥२३।।
इति ब्रवीमि ॥ अन्वयार्थ (आहत्तहीयं समुपेहमाणे) साधु याथातथ्य (सत्य)-वास्तविक रूप से स्वपरसमय को भलीभाँति समझता हुआ, (सव्वेहि पाणेहि दंडे णिहाय) समस्त प्राणियों को दण्ड देना छोड़कर (णो जीविय, णो मरणाभिकखी) अपने जीवन-मरण की आकाक्षा न करके (वलयाविमुक्के परिव्वएज्जा) माया से विमुक्त होकर अपने संयम में प्रगति करे।
भावार्थ साधु याथातथ्य रूप से स्वपरसमय को या सत्य धर्म को भलीभाँति देखता हुआ, सब प्राणियों को दण्ड देना छोड़कर अपने जीवन-मरण से निरपेक्ष होकर माया से मुक्त होकर संयमाचरण में उद्यत रहे।
व्याख्या
याथातथ्य (सत्य) धर्म का प्राणप्रण से पालन करे अब शास्त्रकार इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए याथातथ्य (सत्य) धर्म या स्वपरसिद्धान्त को भलीभाँति जानकर सत्यधर्म पर मरणपर्यन्त डटे रहने की प्रेरणा देते हैं। साधु पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि वह स्वयं याथातथ्य दर्शनादि को समझं, लोगों को सही ज्ञानादि की प्रेरणा दे, तथा धर्म, मार्ग और समवसरण नामक पूर्वोक्त तीन अध्ययनों में उक्त तत्त्वों पर विचार करके अथवा सूत्रानुरूप सम्यक्त्व एवं चारित्र का विचार करके, उत्तम अनुष्ठान में संलग्न रहे। मरने-जीने की परवाह न करे । अपितु प्राण जाने पर भी धर्म का उल्लंघन न करे । साधु का कर्तव्य है कि वह असंयम के साथ या बसस्थावर प्राणियों का हनन करके चिरकाल तक जीने की इच्छा न करे और न परीषह-उपसर्ग आदि से पीड़ित होकर या रोग,
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